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________________ ( १० ) शंकास्पद रह गये, किंतु आश्चर्य इस बातका है कि प्रतियोंकी पूर्वोक्त अवस्था होते हुए भी उन परसे इतना शुद्ध पाठ प्रस्तुत किया जा सका । इस संबन्ध में हमसे पुनः यह कहे बिना नहीं रहा जाता कि गजपतिजी उपाध्याय और पं. सीतारामजी शास्त्रीने भले ही किसी प्रयोजनवश नकलें की हों, किंतु उन्होंने कार्य किया उनकी शक्तिभर ईमानदारीसे और इसके लिये उनके प्रति, और विशेषतः पं. गजपतिजी उपाध्यायकी धर्मपत्नी लक्ष्मीबाईके प्रति हमारी कृतज्ञता कम नहीं है । ३. पाठ संशोधनके नियम सहारनपुर, कारंजा 1 १. प्रस्तुत ग्रंथके पाठ - संशोधन में ऊपर बतलाई हुई अमरावती, और आराकी चार हस्तलिखित प्रतियों का उपयोग किया गया है । यद्यपि ये सब प्रतियां एक ही प्रतिकी प्रायः एक ही व्यक्तिद्वारा गत पंद्रह वर्षोंके भीतर की हुई नकलें हैं, तथापि उनसे पूर्वकी प्रति अलभ्य होनेकी अवस्था में पाठ- संशोधनमें इन चार प्रतियोंसे बहुत सहायता मिली है । कमसे कम उनके मिलानद्वारा भिन्न भिन्न प्रतियोंमें छूटे हुए भिन्न भिन्न पाठ, जो एक मात्रा से लगा कर लगभग सौ शब्दोंतक पाये जाते हैं, उपलब्ध हो गये और इसप्रकार कमसे कम उन सबकी उस एक आदर्श प्रतिका पाठ हमारे सामने आ गया । पाठका विचार करते समय सहारनपुरकी प्रति हमारे सामने नहीं थी, इस कारण उसका जितना उपयोग चाहिये उतना हम नहीं कर सके । केवल उसके जो पाठ-भेद अमरावतीकी हस्त- प्रति पर अंकित कर लिये गये थे, उन्हींसे लाभ उठाया गया है। जहां पर अन्य सब प्रतियोंसे इसका पाठ भिन्न पाया गया वहां इसीको प्रामाण्य दिया गया है । ऐसे स्थल परिशिष्ट में दी हुई प्रति-मिलानकी तालिकाके देखनेसे ज्ञात हो जायेंगे । प्रति- प्रामाण्यके विना पाठ-परिवर्तन केवल ऐसे ही स्थानोंपर किया गया है जहां वह विषय और व्याकरणको देखते हुये नितान्त आवश्यक जंचा । फिर भी वहां पर कमसे कम परिवर्तनद्वारा काम चलाया गया है । २. जहां पर प्रतियोंके पाठ - मिलानमात्रसे शुद्ध पाठ नहीं मिल सका वहां पहले यह विचार किया गया है कि क्या कनाड़ीसे नागरी लिपि करनेमें कोई दृष्टि-दोषजन्य भ्रम वहां संभव है ? ऐसे विचारद्वारा हम निम्न प्रकारके संशोधन कर सके ( अ ) प्राचीन कनाड़ीमें प्राकृत लिखते समय अनुस्वार और वर्ण-द्वित्व-बोधक संकेत एक बिन्दु ही होता है, भेद केवल इतना है कि अनुस्वारका बिन्दु कुछ छोटा (०) और द्वित्वका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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