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________________ १,१, २८.1 संत-पख्त्रणाणुयोगद्दारे गदिमग्गणापरूवणं [२२५ उवसामणम्हि वावदा ते उवसामगा। गदि-मग्गणावयव-देवगदिम्हि गुण-मग्गणहँ सुत्तमाह देवा चदुसु हाणेसु अत्थि मिच्छाइट्ठी सासणसम्माइट्ठी सम्मामिच्छाइट्ठी असंजदसम्माइट्टि त्ति ॥ २८ ॥ देवाश्चतुर्पु स्थानेषु सन्ति । कानि तानीति चेन्मिथ्यादृष्टिः सासादनसम्यग्दृष्टिः सम्यग्मिथ्यादृष्टिः असंयतसम्यग्दृष्टिश्चेति । प्रागुक्तार्थत्वान्नैतेषां गुणस्थानानामिह खरूपमुच्यते । उपशमक कहते हैं। विशेषार्थ-चौदहवें गुणस्थानमें अधिकसे अधिक पचासी प्रकृतियोंकी सत्ता रहती है। उनमेंसे बहत्तर प्रकृतियोंका उपान्त्य समयमें और उदयागत बारह तथा मनुष्यगत्यानुपूर्वी इसप्रकार तेरह प्रकृतियोंका अन्त समयमें क्षय होता है । सर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक, गोमट्टसार आदि ग्रन्थों में इसी एक मतका उल्लेख मिलता है। किंतु ऊपर मनुष्यगत्यानुपूर्वीका उपान्त्य समयमें भी क्षय बतलाया गया है, जिसका उल्लेख कर्मप्रकृति आदि ग्रन्थों में भी मिलता है। तथा उसकी पुष्टिके लिये इसप्रकार समर्थन भी किया गया है कि अनुदयप्राप्त प्रकृतियोंका स्तिबुकसंक्रमणके द्वारा उदयागत बारह प्रकृतियोंमें ही उपान्त्य समयमें संक्रमण हो जाता है । अतः मनुष्यगत्यानुपूर्वीका भी उपान्त्य समयमें ही सत्त्वनाश हो जाता है, क्योंकि, मनुष्यगत्यानुपूर्वीका उदय केवल विग्रहगतिके गुणस्थानों में ही होता है, शेषमें नहीं। इसप्रकार दूसरे आचार्योंके मतानुसार उपान्त्य समयमें मनुष्यगत्यानुपूर्वी-सहित तेहत्तर और अन्त समयमें बारह प्रकृतियोंका सत्त्व नाश होता है। ___ अब गतिमार्गणाके अवयवरूप देवगतिमें गुणस्थानोंके अन्वेषण करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि, इन चार गुणस्थानों में देव पाये जाते हैं ॥२८॥ देव चार गुणस्थानों में पाये जाते हैं। शंका-वे चार गुणस्थान कौनसे हैं ? समाधान-मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि, इसप्रकार देवोंके चार गुणस्थान होते हैं। इन गुणस्थानोंका स्वरूप पहले कह आये हैं, इसलिये यहां पर उनका स्वरूप पुनः नहीं कहते हैं। १ देवगतौ नारकवत् । स. सि. १, ८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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