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२२६] छक्खंडागमे जीबट्टाणं
[१, १, २८. ___ अथ खाद्यासु याभिर्वा जीवाः मृग्यन्ते ताः मार्गणा इति प्राङ् मार्गणाशब्दस्य . निरुक्तिरुक्ता, आर्षे चेयत्सु गुणस्थानेषु नारकाः सन्ति, तिर्यञ्चः सन्ति, मनुष्याः सन्ति, देवाः सन्तीति गुणस्थानेषु अन्विष्यन्ते, अतस्तद्व्याख्यानमार्षविरुद्धमिति नैष दोषः, ‘णिरय-गईए णेरईएसु मिच्छाइट्ठी दव्वपमाणेण केवडियों' इत्यादिभगवद्-भूतबलिभट्टारकमुखकमलविनिर्गतगुणसंख्यादिप्रतिपादकसूत्राश्रयेण तन्निरुक्तेरवतारात् । कथमनयोर्भूतबलिपुष्पदन्तवाक्ययोन विरोध इति चेन विरोधः । कथमिदं तावत ? निरूप्यते । न तावदसिद्धेन असिद्धे वासिद्धस्यान्वेषणं सम्भवति विरोधात् । नापि सिद्धे सिद्धस्यान्वेपणं तत्र तस्यान्वेषणे फलाभावात् । ततः सामान्याकारेण सिद्धानां जीवानां गुणसत्त्वद्रव्यसंख्यादिविशेषरूपेणासिद्धानां त्रिकोटिपरिणामात्मकानादिबन्धनबद्धज्ञानदर्शनलक्षणात्मास्तित्वान्यथानुपपत्तितः सामान्याकारणावगतानां गत्यादीनां मार्गणानां च विशेषतोऽनवगतानामिच्छातः आधाराधेयभावो भवतीति नोभयवाक्ययोर्विरोधः ।
शंका-जिनमें अथवा जिनके द्वारा जीपोंका अन्वेषण किया जाता है उन्हें मार्गणा कहते हैं, इसप्रकार पहले मार्गणा शब्दकी निरुक्ति कह आये हैं। और आर्षमें तो इतने गुणस्थानोंमें नारकी होते हैं, इतने में तिर्यंच होते हैं, इतनेमें मनुष्य होते हैं और इतने में देव होते हैं, इसप्रकार गुणस्थानोंमें मार्गणाओंका अन्वेषण किया जा रहा है। इसलिये उक्त प्रकारसे मार्गणाकी निरुक्ति करना आर्षविरुद्ध है ?
समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, 'नरकगतिमें नारकियों में मिथ्यादृष्टि द्रव्यप्रमाणसे कितने हैं', इत्यादि रूपसे भगवान् भूतबलि भट्टारकके मुख-कमलसे निकले हुए गुणस्थानोंका अवलम्बन लेकर संख्या आदिके प्रतिपादक सूत्रोंके आश्रयसे उक्त निरुक्तिका अवतार हुआ है।
शंका- तो भूतबलि और पुष्पदन्तके इन वचनोंमें विरोध क्यों न माना जाय ? - समाधान-उनके वचनों में विरोध नहीं है। यदि पूछो किसप्रकार, तो आगे इसी बातका निरूपण करते हैं। असिद्धके द्वारा अथवा आसिद्धमें असिद्धका अन्वेषण करना तो संभव नहीं है, क्योंकि, इसतरह अन्वेषण करने में तो विरोध आता है। उसीप्रकार सिद्धमें सिद्धका अन्वेषण करना भी उचित नहीं है, क्योंकि, सिद्धमें सिद्धका अन्वेषण करने पर कोई फल निष्पन्न नहीं होता है। इसलिये स्वरूपसामान्यकी अपेक्षा सिद्ध, किंतु गुण, सत्व, द्रव्य, संख्या आदि विशेषरूपसे असिद्ध जीवोंका अर्थात् जीवस्थानोंका और उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यरूपसे परिणमनशील अनादि-कालीन बन्धनसे बंधे हुए, तथा ज्ञान और दर्शन लक्षण स्वरूप आत्माके अस्तित्वकी सिद्धि अन्यथा, अर्थात् गत्यादिकके अभावमें, हो नहीं सकती है, इसलिये सामान्यरूपसे जानी गई और विशेषरूपसे नहीं जानी गई ऐसी गति आदि मार्गणा
१ जी, द. सू. १२.
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