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________________ १, १, २७.] संत-परवणाणुयोगदारे गदिमागणापरूवणं [ २२३ अंतरकरणं काऊण पुणो अंतोमुहुत्ते गदे णqसय-वेदं खवेदि । तदो अंतोमुहुत्तं गंतूणित्थिवेदं खवेदि । तदो अंतोमुहुत्तं गंतूण छण्णोकसाए पुरिसवेद चिराण-संत-कम्मेण सह सवेद-दुचरिम-समए जुगवं खवेदि। तदो दो-आवलिय-मेत्त-कालं गंतूण पुरिसवेदं खवेदि । तदो अंतोमुहुत्तमुवार गंतूण कोध-संजलणं खवेदि । तदो अंतोमुहुत्तमुवरि गंतूण माण-संजलणं खवेदि। तदो अंतोमुहुत्तं गंतूग माया-संजलणं खवेदि । तदो अंतोमुहुत्तं' गंतूण मुहुम-सांपराइय-गुणट्ठाणं पडिवजदि । सो वि मुहुम-सांपराइओ अपणो चरिमसमए लोभ-संजलणं खवेदि । तदो से काले खीण-कसाओ होदृण अंतोमुहुत्तं गमिय अप्पणो अद्धाए दु-चरिम-समए णिद्दा-पयलाओ दो वि अकमेण खवेदि। तदो से काले पंचणाणावरणीय-चदुदंसणावरणीय-पंचअंतराइयमिदि चोदसपयडीओ अप्पणो चरिमसमए खवेदि । एदेसु सहि-कम्मेसु खीणेसु सजोगिजिणो होदि । सजोगिकेवली ण किंचि कम्मं खवेदि। तदो कमेण विहरिय जोग-णिरोह-काऊण अजोगिकेवली होदि । सो वि अप्पणो दु-चरिम-समए अणुदयवेदणीय-देवगदि-पंचसरीर-पंचसरीरसंघाद-पंचसरीरबंधण-छस्संठाण-तिण्णिअंगोवंग-छस्संघडण-पंचवण्ण-दोगंध-पंचरस जाने पर नपुंसकवेदका क्षय करता है। तदनन्तर एक अन्तर्मुहूर्त जाकर स्त्रीवेदका क्षय करता है। फिर एक अन्तर्मुहर्त जाकर सवेद-भागके द्विचरम समयमें पुरुषवेदके पुरातन सत्तारूप कर्मों के साथ छह नो-कषायका एकसाथ क्षय करता है । तदनन्तर एक समय कम दो आवली. मात्र कालके व्यतीत होने पर पुरुषवेदका क्षय करता है। तत्पश्चात् एक अन्तर्मुहूर्त ऊपर जाकर क्रोध संज्वलनका क्षय करता है। इसके पीछे एक अन्तर्मुहूर्त ऊपर जाकर मान-संज्वलनका क्षय करता है। इसके पीछे एक अन्तर्मुहूर्त ऊपर जाकर माया-संज्वलनका क्षय करता है । पुनः एक अन्तर्मुहर्त ऊपर जाकर सूक्ष्मसांपराय गुणस्थानको प्राप्त होता है । वह सूक्ष्मसांपराय गुणस्थानवाला जीव भी अपने गुणस्थानके अन्तिम समय में लोभ-संज्वलनका क्षय करता है। तदनन्तर उसी कालमें क्षीणकषाय गुणस्थानको प्राप्त करके और अन्तर्मुहर्त बिताकर अपने कालके द्विचरम समयमें निद्रा और प्रचला इन दो प्रकृतियोंका एकसाथ क्षय करता है। इसके पीछे अपने कालके अन्तिम समयमें पांच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पांच अन्तराय इन चौदह प्रकृतियोंका क्षय करता है। इसतरह इन साठ कर्म-प्रकृतियों के क्षय हो जाने पर यह जीव सयोगकेवली जिन होता है। सयोगी जिन किसी भी कर्मका क्षय नहीं करते हैं। इसके पीछे विहार करके और क्रमसे योगनिरोध करके वे अयोोग केवली होते हैं। वे भी अपने कालके द्विचरम समयमें वेदनीयकी दोनों प्रकृतियोंमेंसे अनुदयरूप कोई एक देवगति, पांच शरीर, पांच शरीरोंके संघात, पांच शरीरोंके बन्धन, छह संस्थान, तीन आंगोपांग, छह १ . समऊण ' इयधिकेन पाठेन भाव्यम् । समऊग दोणि आवलिपनाणसमयपबद्धवबंधो।ल.क्ष. ४६१. २ आणियट्टिगुणहाणे मायारहिदं च द्वाणमिच्छति। हाणा भंगपमाणा केई एवं परूवति ।। गो. क. ३९२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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