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________________ २२२ छरखंडागमे जीवाणं [१, १, २७. जदि एवं, तो एयाणं पि वयणाणं तदवयवत्तादो सुत्तत्तणं पावदि तिचे भवदु दोण्हं मज्झे एकस्स सुत्ततणं, ण दोण्हं पि परोप्पर-विरोहादो। उस्सुतं लिहंता आइरिया कथं वज-भीरुणो? इदि चे ण एस दोसो, दोण्हं मज्झे एक्कस्सेव संगहे कीरमाणे वज-भीरुत्तं णिवट्टति ? दोण्हं पि संगहं करेंताणमाइरियाणं वज-भीरुत्वाविणासादो। दोण्हं वयणाणं मझे कं वयणं सच्चमिदि चे मुदकेवली केवली वा जागदि, ण अण्णो, तहा णिण्णयाभावादो । वट्टमाग-कालाइरिएहि वञ्ज-भीरूहि दोण्हं पि संगहो काययो, अण्णहा वजभीरुत्त-विणासादो ति। तदो अंतोमुहत्तं गंतूग चउसंजलग-णवणोकसायाणमंतरं करेदि । सोदयाणमतोमुहुत्त-मेत्तिं पढम-ट्ठिदि अणुदयाणं समऊणावलिय-मेति पढम-द्विदि करेदि । तदो शंका- यदि ऐसा है, तो इन दोनों ही वचनोंको द्वादशांगका अवयव होनेसे सूत्रपना प्राप्त हो जायगा ? समाधान- दोनों से किसी एक वचनको सूत्रपना भले ही प्राप्त होओ, किंतु दोनोंको सूत्रपना नहीं प्राप्त हो सकता है, क्योंकि, उन दोनों वचनों में परस्पर विरोध पाया जाता है। शंका- उत्सूत्र लिखनेवाले आचार्य पापभीरू कैसे माने जा सकते हैं ? समाधान- यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, दोनों प्रकारके बधनों से किसी एक ही वचनके संग्रह करने पर पापभीरता निकल जाती है, अर्थात् उच्ख लता आ जाती है। अतएव दोनों प्रकारके वचनोंका संग्रह करनेवाले आचार्योंके पापभीरुता नष्ट नहीं होती है, अर्थात् बनी रहती है। शंका-~-दोनों प्रकार के वचनोंमेंसे किस वचनको सत्य माना जाय ? समाधान -- इस बातको तो केवली या श्रुतकेवली ही जान सकते हैं, दुसरा कोई नहीं जान सकता। अत: इससमय उसका निर्णय नहीं हो सकता है, इसलिये पापभीरु वर्तमानकालके आचार्योंको दोनोंका ही संग्रह करना चाहिये, अन्यथा पापभीरताका विनाश हो जायगा। तत्पश्चात् आठ कषाय या सोलह प्रकृतियोंके नाश होनेपर एक अन्तर्मुहर्त जाकर चार संज्वलन और नौ नो-कषायोंका अन्तरकरण करता है । अन्तरकरण करनेके पहले चार संज्वलन और नौ नो-कषायसंबन्धी तीन वेदोमसे जिन दो प्रकृतियोंका उदय रहता है उनकी प्रथमस्थिति अन्तर्मुहूर्तमात्र स्थापित करता है,और अनुदयरूप ग्यारह प्रकृतियोंकी प्रथमस्थिति एक समयकम आवलीमात्र स्थापित करता है। तत्पश्चात् अन्तरकरण करके एक अन्तर्मुहूर्त १ स. प्रती णिब्युदित्ति', अ. क. प्रत्योः पिजबुदित्ति' इति पाठः । २ सेजलणाणं एक वेदाणेक उदेदितहाण्हं । ससाणं पटमा दिवोदे अंतोमहत्तआवलियं । ल.स. ४३४. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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