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________________ छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, १, २७. उवसामेदि । सुहुमकिट्टि मोतूण अवसेसो बादरलोभो फद्दयं गदो सम्बो णवकबंधुच्छिट्ठावलिय-वजो अणियट्टि-चरिम-समए उवसंतो'। णqसयवेदप्पहुडि जाव बादरलोभ-संजलणो त्ति ताव एदासिं पयडीणमणियट्टी उवसामगो होदि । तदो गंतर-समए सहुमकिट्टि-सरूवं लोभं वेदंतो णट्ठ-अणियट्टि-सण्णो सुहुमसांपराइओ होदि । तदो सो अप्पणो चरिम-समए लोह-संजलणं सुहुमकिट्टि-सरूवं णिस्सेसमुवसामिय उपसंत-कसायवीदराग-छदुमत्थो होदि। एसा मोहणीयस्स उवसामण-विही । ........ है। इसतरह सूक्ष्मकृष्टिगत लोभको छोड़कर और एक समय कम दो आवलीमात्र नवक-समयप्रबद्ध तथा उच्छिष्टावली मात्रनिषेकोंको छोड़कर शेष स्पर्द्धकगत संपूर्ण बादरलोभ अनिवृत्तिकरणके चरम समयमें उपशान्त हो जाता है । इसप्रकार नपुंसकवेदसे लेकर जब तक बादर-संज्वलन-लोभ रहता है तबतक अनिवृत्तिकरण गुणस्थानवाला जीव इन पूर्वोक्त प्रकृतियोंका उपशम करनेवाला होता है। इसके अनन्तर समयमें जो सूक्ष्मकृष्टिगत लोभका अनुभव करता है और जिसने अनिवृत्ति इस संज्ञाको नष्ट कर दिया है, ऐसा जीव सूक्ष्मसांपराय गुणस्थानवर्ती होता है। तदनन्तर वह अपने कालके चरम समयमें सूक्ष्मकृष्टिगत संपूर्ण लोभ-संज्वलनका उपशम करके उपशान्तकषाय-वीतराग-छद्मस्थ होता है। इसप्रकार मोहनीयकी उपशमनविधिका वर्णन समाप्त हुआ। विशेषार्थ-लब्धिसार आदि ग्रन्थों में द्वितीयोपशम सम्यक्त्वकी उत्पत्ति अप्रमत्तसंयत गुणस्थानमें ही बतलाई है, किन्तु यहां पर उपशमन विधिके कथनमें उसकी उत्पत्ति असंयतसम्यग्दृष्टिसे लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थानतक किसी भी एक गुणस्थानमें बतलाई गई है। धवलामें प्रतिपादित इस मतका उल्लेख श्वेताम्बर संप्रदायमें प्रचलित कर्मप्रकृति आदि ग्रंथों में देखनेमें आता है। तथा अनन्तानुबन्धीके अन्य प्रकृतिरूपसे संक्रमण होनेको ग्रन्थान्तरों में विसंयोजना कहा है, और यहां पर उसे उपशम कहा है। यद्यपि यह केवल शब्द भेद है, और स्वयं वीरसेन स्वामीको द्वितीयोपशम सम्यक्त्वमें अनन्तानुबन्धीका अभाव इष्ट है। फिर भी उसे विसंयोजना शब्दसे न कहकर उपशम शब्दके द्वारा कहनेसे उनका यह अभिप्राय रहा हो कि द्वितीयोपशम सम्यग्दृष्टि जीव कदाचित् मिथ्यात्व गुणस्थानको प्राप्त होकर पुनः अनन्तानुबन्धीका बन्ध करने लगता है, और जिन कर्मप्रदेशोंका उसने अन्य १(यत्र) स्थितिसवमावलिमात्रमवशिष्यते तदुच्छिन्दावलिसंज्ञम् । ल. क्ष. ११३. २ ल. क्ष. २९५. संज्वलनबावरलोभस्य प्रथमस्थितौ उच्छिष्टावलिमात्रेऽवशिष्टे उपशमनावलिचरमसमये लोभत्र यद्रव्यं सर्वमप्युपशमितं भवति । तत्र सूक्ष्मकृष्टिगतद्रव्यं समयोनद्यावलिमात्रसमयप्रवद्धनवकबन्धद्रव्यं उच्छिष्टावलिमात्रनिकेषद्रव्यं च नोपशमयति । एतद्व्यत्रय मुक्त्वा लोभत्रयस्य सर्वमपि सत्वद्रव्यमपशमितमित्यर्थः । सं. टी. ३ विशेषजिज्ञासुभिलब्धिसारस्य चारित्रोपशमनविधिरवलोकनीयः । ल.क्ष. २०५-३५१. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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