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________________ १, १, २७.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे गदिमग्गणापरूवणं [२१५ खवण-विहिं वत्तइस्सामो। खवणं णाम किं ? अट्ठण्हं कम्माणं मूलत्तर-भेय प्रकृतिरूपसे संक्रमण किया था उनका फिरसे अनन्तानुबन्धीरूपसे संक्रमण हो सकता है। इस प्रकार यद्यपि द्वितीयोपशम सम्यक्त्वमें अनन्तानुबन्धीकी सत्ता नहीं रहती है, फिर भी उसका पुनः सद्भाव होना संभव है। अतः द्वितीयोपशम सम्यक्त्वमें अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना ने कह कर उपशम शब्दका प्रयोग किया हो । अथवा, द्वितीयोपशम सम्यक्त्वकी उत्पत्ति कोई आचार्य तो अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजनासे मानते हैं. और दसरे आचार्य अनन्तानबन्धीके उपशमसे मानते हैं। इस प्रकार दो मत हैं। अनन्तानुबन्धीके उपशमका उक्त प्रकारसे लक्षण बांधते समय संभव है कि धवला. कारकी दृष्टि उक्त दोनों मतों पर रही हो। __ उपशमन और क्षपण विधिमें सर्वत्र एक समय कम दो आवलीमात्र नवक-समयप्रबद्धका उल्लेख आया है। और वहीं पर यह भी बतलाया है कि इनका प्राचीन सत्तामें स्थित कों के साथ उपशमन या क्षपण न होकर अनन्तर उतने ही कालमें एक एक निषेकके क्रमसे उपशम या क्षय होता है। इसका यह अभिप्राय है कि जिन कर्मप्रकृतियोंकी बन्ध, उदय और सत्त्व व्युच्छित्ति एकसाथ होती है, उनके बन्ध और उदय-व्युच्छित्तिके कालमें एक समय कम दो आवलीमात्र नवक-समयप्रबद्ध रह जाते हैं, जिनकी सत्त्व-व्युच्छित्ति अनन्तर होती है। वह इस प्रकार है कि विवक्षित (पुरुषवेद आदि) प्रकृतिके उपशमन या क्षपण होनेके दो आवली काल अवशिष्ट रह जाने पर द्विचरमावलीके प्रथम समयमें बंधे हुए द्रव्यका, बन्धावलीको व्यतीत करके चरमावलीके प्रथम समयसे लेकर प्रत्येक समयमें एक एक फालिका उपशम या क्षय होता हुआ चरमावलीके अन्त समयमें संपूर्णरीतिसे उपशम या क्षय होता है । तथा द्विचरमावलोके द्वितीय समयमें जो द्रव्य बंधता है, उसका चरमावलीके द्वितीय समयसे लेकर अन्त समयतक उपशम या क्षय होता हुआ अन्तिम फालिको छोड़कर सबका उपशम या क्षय होता है । इसीप्रकार द्विचरमावलीके तृतीयादि समयमें बंधे हुए द्रव्यका बन्धावलीको व्यतीत करके चरमावलीके तृतीयादि समयसे लेकर एक एक फालिका उपशम या क्षय होता हुआ क्रमसे दो आदि फालिरूप द्रव्यको छोड़कर शेष सबका उपशम या क्षय होता है। तथा चरमावलीके प्रथमादि समयोंमें बंधे हुए द्रव्यका उपशम या क्षय नहीं होता है, क्योंकि, बंधे हुए द्रव्यका एक आवली तक उपशम नहीं होता, ऐसा नियम है। इसप्रकार चरमावलीका संपूर्ण द्रव्य और द्विचरमावलीका एक समयकम आवलीमात्र द्रव्य उपशम या क्षय रहित रहता प्राचीन सत्तामें स्थित कर्मके उपशम या क्षय हो जानेके पश्चात् ही उपशम या क्षय होता है। अब क्षपणविधिको कहते हैशंका-क्षय किसे कहते हैं ? समाधान-जिनके मूलप्रकृति और उत्तरप्रकृतिके भेदसे प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्ध अनेक प्रकारके हो जाते हैं, ऐसे आठ कोका जीवसे जो अत्यन्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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