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________________ २१२ ] छक्खंडागमे जीवट्ठाण [१, १, २७. द्विदि-खंडय-कालभंतरे संखेज-सहस्साणि अणुभाग-खंडयाणि घादेदि । पडिसमयमसंखेजगुणाए सेढीए पदेस-णिज्जरं करेदि । जे अप्पसत्थ-कम्मसे ण बंधदि तेसिं पदेसग्ग मसंखेज-गुणाए सेढीए अण्ण-पयडीसु बज्झमाणियासु संकामेदि । पुणो अपुवकरणं वोलेऊण अणियट्टि-गुणट्ठाणं पविसिऊणंतोमुहुत्तमणेणेव विहाणेणच्छिय बारस-कसायणव-णोकसायाणमंतरं अंतोमुहुत्तेण करेदि । अंतरे कदे पढम-समयादो उवरि अंतोमुहत्तं गंतूण असंखेज-गुणाए सेढीए णउंसय-वेदमुवसामेदि । उवसमो णाम किं ? उदय. उदीरण-ओकडुक्कड्डण-परपयडिसंकम-द्विदि-अणुभाग-कंडयघादेहि विणा अच्छगमुवसमो। तदो अंतोमुहुत्तं गंतूण णqसयवेदमुवसामिद-विहाणणित्थिवेदमुवसामेदि । तदो अंतोमहत्तं णोंको करता है। तथा एक एक स्थिति-खण्डके काल में संख्यात हजार अनुभाग-खण्डोंका घात करता है। और प्रतिसमय असंख्यात-गुणित-श्रेणीरूपसे प्रदेशोंकी निर्जरा करता है । तथा जिन अप्रशस्त प्रकृतियोंका बन्ध नहीं होता है, उनकी कर्मवर्गओंको उस समय बंधनेवाली अन्य प्रकृतियों में असंख्यातगुणित श्रेणीरूपसे संक्रमण कर देता है। इसतरह अपूर्वकरण गुणस्थानको उल्लंघन करके और अनिवृत्तिकरण गुणस्थानमें प्रवेश करके, एक अन्तर्मुहूर्त पूर्वोक्त विधिसे रहता है। तत्पश्चात् एक अन्तर्मुहूर्त कालके द्वारा बारह कषाय और नौ नोकषाय इनका अन्तर (करण) करता है। (नीचेके व ऊपरके निषेकोंको छोड़कर बीचके कितने ही निषकोंके द्रव्यको अन्य निषेकोंके द्रव्यमें निक्षेपण करके बीचके निषकोंके अभाव करनेको अन्तरकरण कहते हैं।) अन्तरकरणविधिके हो जाने पर प्रथम समयसे लेकर ऊपर अन्तर्मुहूर्त जाकर असंख्यातगुणी श्रेणीके द्वारा नपुंसकवेदका उपशम करता है। शंका-उपशम किसे कहते हैं ? समाधान- उदय, उदीरणा, उत्कर्षण, अपकर्षण, परप्रकृतिसंक्रमण, स्थिति काण्डक... घात और अनुभाग-काण्डकघातके विना ही कौके सत्तामें रहनेको उपशम कहते हैं। तदनन्तर एक अन्तर्मुहूर्त जाकर नपुंसकवेदकी उपशमविधिके समान ही स्त्रीवेदका अ. पू. ९५४. दर्शनमोहस्य प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशानामुपशमन उदयायोग्यभावेन जीवः उपशान्तः उपशमसम्य. ग्दृष्टिर्भवति । ल. क्ष. सं. टी. १०२. १ अंतर विरही सुण्णभावो ति एयट्ठो तस्स करणमन्तरकरण । हेट्ठा उत्ररिं च केत्तियाओ हिदीओ मोत्तण मझिल्लाणं द्विदीणं अंतोमुहत्तपमाणाणं णिसेगे सुण्णत्तसंपादणमंतरकरणामदि । जयध. अ. प्र. १००९. २ आत्मनि कर्मणः स्वशतः कारणवशादनभूतिरुपशमः। यथा कतकादिव्यसंम्बन्धादम्भसि पङ्कस्योपशमः । स. सि. २.१. कर्मणोऽनुभूतस्त्रवीर्यवृत्तितोपशमोऽधःप्रापितपङ्कवत् । त. रा. २. १. १. अनुदभूतस्वसामर्थ्यवृत्तितोपशमो मतः । कर्मणा पुंसि तोयादावधःप्रापितपक्वत् ॥ त. श्लो. वा. २. १. २. उपशामिता नाम यथा रेणुनिकरः सलिलबिन्दुनिवहैरभिषिच्याभिषिच्य द्रुघणादिभिर्नि कुाहतो निष्पन्दो भवति तथा कर्मरेणुनि करोऽपि विशोधिसलिलप्रवाहेण परिषिच्य परिषिच्यानिवृत्तिकरणरूपद्रुघणनि कुट्टितः संकमणोदयोदोरणानिधत्तिानकाचनाकरणानाम योग्यो भवति । क. प्र, पृ. २६७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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