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________________ २१० छक्खंडागमे जीवाणं [१, १, २७. मनुष्यगतौ गुणस्थानान्वेषणार्थमुत्तरसूत्रमाह - मणुस्सा चोदससु गुणट्ठाणेसु अस्थि मिच्छाइट्ठी, सासणसम्माइट्टी, सम्मामिच्छाइट्ठी, असंजदसम्माइट्ठी, संजदासंजदा, पमत्तसंजदा, अप्पमत्तसंजदा, अपुवकरण-पविट्ठ-सुद्धि-संजदेसु अत्थि उवसमा खवा, अणियट्टि-बादर-सांपराइय-पविट्ठ-सुद्धि-संजदेसु अत्थि उवसमा खवा, सुहुम-सांपराइय-पविठ्ठ-सुद्धि-संजदेसु अत्थि उवसमा खवा, उवसंत-कसाय-वीयराय-छदुमत्था, खीण-कसाय-वीयराय-छदुमत्था, सजोगिकेवली, अजोगिकेवलि त्ति ॥ २७ ॥ ___एयस्स सुत्तस्स अत्थो पुव्वं उत्तो त्ति णेदाणिं वुच्चदे जाणिद-जाणावणे फलाभावादो। पुवमवुत्तमुवसामण-खवण-विहिं एत्थ संबद्धमुवसामग-क्खवग-सरूव-जाणावणé संखेवदो भणिस्सामो। तं जहा, तत्थ ताव उवसामण-विहिं वत्तइस्सामो । अणंताणुबंधि-कोध-माण-माया-लोभ-सम्मत्त-सम्मामिच्छत्त-मिच्छत्तमिदि एदाओ सत्तपयडीओ असंजदसम्माइट्टि-प्पहुडि जाव अप्पमत्तसंजदो त्ति ताव एदेसु जो वा सो वा इस आर्ष-वचनसे जानते हैं कि असंयतसम्यग्दृष्टि जीव तिर्यंचनियों में उत्पन्न नहीं होते हैं। अब मनुष्यगतिमें गुणस्थानों के अन्वेषण करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्याग्मथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरण-प्रविष्ट-विशुद्धि-संयतों में उपशमक और क्षपक, अनिवृत्तिबादरसांपराय-प्रविष्ट-विशुद्धि-संयतोंमें उपशमक और क्षपक, सूक्ष्मसांपराय:प्रविष्ट-विशुद्धिसंयतोंमें उपशमक और क्षपक, उपशांतकषाय-वीतराग-छद्मस्थ, क्षीणकषाय-वीतरागछद्मस्थ, सयोगिकेवली और अयोगिकेवली इसतरह इन चौदह गुणस्थानों में मनुष्य पाये जाते हैं ॥ २७॥ इस सूत्रका अर्थ पहले कहा जा चुका है इसलिये अब नहीं कहते हैं, क्योंकि, जिसका ज्ञान हो गया है उसका फिरसे ज्ञान करानेमें कोई विशेष फल नहीं है। पहले उपशमन और क्षपणविधिका स्वरूप नहीं कहा है, इसलिये उपशमक और क्षपकके स्वरूपका ज्ञान करानेके लिये यहां पर संबन्ध प्राप्त उपशमन और क्षपणविधिको संक्षेपसे कहते हैं । वह इसप्रकार है। उसमें भी पहले उपशमनविधिको कहते हैं अनन्तानुबन्धी-क्रोध, मान, माया और लोभ, सम्यक्प्रकृति, सम्यग्मिथ्यात्व तथा १ मनुष्यगतौ चतुर्दशापि सन्ति । स. सि. १.८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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