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________________ १, १, २६.] संत-पख्वणाणुयोगदारे गदिमग्गणापरूवर्ण [२०९ पादकार्यात् । शेपेषु पञ्चापि गुणस्थानानि सन्ति, अन्यथा तत्र पञ्चानां गुणस्थानानां संख्यादिप्रतिपादकद्रव्याद्यार्षस्याप्रामाण्यप्रसङ्गात् । अत्र पञ्चविधास्तिर्यञ्चः किन्न निरूपिता इति चेन्न, 'आकृष्टाशेषविशेषविषयं सामान्यम् ' इति द्रव्यार्थिकनयावलम्बनात् । तिरश्चीष्वपर्याप्ताद्धायां मिथ्यादृष्टिसासादना एव सन्ति', न शेषास्तत्र तन्निरूपकार्षाभावात् । भवतु नाम सम्यग्मिथ्यादृष्टिसंयतासंयतानां तत्रासत्त्वं पर्याप्ताद्धायामेवेति नियमोपलम्भात् । कथं पुनरसंयतसम्यग्दृष्टीनामसत्वमिति न, तत्रासंयतसम्यग्दृष्टीनामुत्पत्तेरभावात् । तत्कुतोऽवगम्यत इति चेत् छसु हेडिमासु पुढवीसु जोइस-वण-भवण-सव्व-इत्थी । णेदेसु समुप्पज्जइ सम्माइट्टी दु जो जीवो ॥ १३३ ॥ इत्यार्षात् । आदि आगममें अप्रमाणताका प्रसंग आजायगा। शंका-सूत्रमें तिर्यंचसामान्यके स्थानपर पांच प्रकारके तिर्यंचोंका निरूपण क्यों · नहीं किया ? समाधान- नहीं, क्योंकि, 'अपने में संभव संपूर्ण विशेषोंको विषय करनेवाला सामान्य होता है ' इस न्यायके अनुसार द्रव्यार्थिक अर्थात् सामान्य नयके अवलम्बनसे संपूर्ण भेदोंका तिर्यंच-सामान्यमें अन्तर्भाव कर लिया है, अतएव पांचों भेदोंका अलग अलग निरूपण नहीं किया, किंतु तिर्यंच इतना सामान्य पद दिया है। __ तिर्यंचनियोंके अपर्याप्तकालमें मिथ्यादृष्टि और सासादन ये दो गुणस्थानवाले ही होते हैं, शेष तीन गुणस्थानवाले नहीं होते हैं, क्योंकि, तिर्यंचनियोंके अपर्याप्त-कालमें शेष तीन गुणस्थानोंका निरूपण करनेवाले आगमका अभाव है। . . शंका-तिर्यंचनियोंके अपर्याप्तकालमें सम्यग्मिथ्यादृष्टि और संयतासंयत इन दो गुणस्थानवालोंका अभाव रहा आवे, क्योंकि, ये दो गुणस्थान पर्याप्त-कालमें ही पाये जाते हैं, ऐसा नियम मिलता है। परंतु उनके अपर्याप्त कालमें असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंका अभाव कैसे माना जा सकता है? समाधान-नहीं, क्योंकि, तिर्यंचनियों में असंयतसम्यग्दृष्टियोंकी उत्पत्ति नहीं होती है, इसलिये उनके अपर्याप्त कालमें चौथा गुणस्थान नहीं पाया जाता है। शंका - यह कैसे जाना जाता है ? समाधान-"जो सम्यग्दृष्टि जीव होता है, वह प्रथम पृथिवीके विना नीचेकी छह पृथिवियों में ज्योतिषी, व्यन्तर और भवनवासी देवोंमें; और सर्व प्रकारकी स्त्रियों में उत्पन्न नहीं होता है ' ॥ १३३॥ १ पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीसु मिच्छाइटिसासणसम्माइडिट्ठाणे सिया पजत्तियाओ सिया अपज्जत्तियाओ जी. सं. सू. ८७. २ सम्मामिच्छाइट्ठिअसंजदसम्माइट्ठिसंजदासजदट्ठाणे णियमा पज्जत्तियाओ । जी. सं. सू. ८८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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