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________________ २०० छरखंडागमे जीवडाण [१, १, २३. सिद्धा चेदि ॥ २३॥ सिद्धाः निष्ठिताः निष्पन्नाः कृतकृत्याः सिद्धसाध्या इति यावत् । निराकृताशेषकर्माणो बाह्यार्थनिरपेक्षानन्तानुपमसहजाप्रतिपक्षसुखाः निरुपलेपाः अविचलितस्वरूपाः सकलावगुणातीताः निःशेषगुणनिधानाः चरमदेहात्किञ्चिन्न्यूनस्वदेहाः कोशविनिर्गतसायकोपमाः लोकशिखरनिवासिनः सिद्धाः । उक्तं च __ अढविह-कम्म-विजुदा सीदीभूदा णिरंजणा णिच्चा । अट्ठ-गुणा किदकिच्चा लोयग्ग-णिवासिणो सिद्धा ॥ १२७ ॥ सव्वत्थ अस्थि त्ति संबंधो कायव्यो । 'च' सह। समुच्चयहो । 'इदि' सदो एत्तियाणि चेव गुणट्ठाणाणि त्ति गुणट्ठाणाणं समत्ति-वाचओ। सामान्यसे सिद्ध जीव होते हैं ॥२३॥ सिद्ध, निष्ठित, निष्पन्न, कृतकृत्य और सिद्धसाध्य ये एकार्थवाची नाम हैं। जिन्होंने समस्त काका निराकरण कर दिया है, जिन्होंने बाह्य पदार्थोकी अपेक्षा रहित, अनन्त, अनुपम, स्वाभाविक और प्रतिपक्षरहित सुखको प्राप्त कर लिया है, जो निर्लेप हैं, अचल स्वरूपको प्राप्त हैं, संपूर्ण अवगुणोंसे रहित हैं, सर्व गुणोंके निधान हैं, जिनका स्वदेह अर्थात् आत्माका आकार चरम शरीरसे कुछ न्यून है, जो कोशसे निकले हुए वाणके समान विनिःसंग हैं और लोकके अग्रभागमें निवास करते हैं उन्हें सिद्ध कहते हैं। कहा भी है जो ज्ञानावरणादि आठ कर्मोंसे सर्वथा मुक्त हैं, सुनिवृत (सब प्रकारकी शीतलतासे युक्त) हैं, निरंजन हैं, नित्य हैं, ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य, अव्याबाध, अवगाहन, सूक्ष्मत्व और अगुरुलघु इन आठ गुणोंसे युक्त हैं, कृतकृत्य हैं और लोकके अग्रभागमें निवास करते हैं उन्हें सिद्ध कहते हैं ॥ १२७ ॥ 'अत्थि मिच्छाइट्ठी' इस सूत्रसे लेकर 'सिद्धा चेदि' इस सूत्र पर्यन्त सब जगह 'आस्ति' पदका संबन्ध कर लेना चाहिये । 'सिद्धा चेदि' इस सूत्रमें आया हुआ 'च' शब्द समुच्चयरूप अर्थका वाचक है और 'इति' शब्द, गुणस्थान इतने ही होते हैं इससे कम या अधिक नहीं, इसप्रकार गुणस्थानोंकी समाप्तिका वाचक है। १ गो. जी. ६८ ' अठविहकम्मविजुदा ' अनेन संसारिजविस्य मुक्तिर्नास्तीति याज्ञिकमतं, सर्वदा कर्ममलरस्पृष्टत्वेन सदा मुक्त एव सदेवेश्वर इति सदाशिवमतं च अपास्तं । 'सीदीभूदा' अनेन मुक्ती आत्मनः सुखाभावं वदन सांख्यमतमपाकृतं । णिरंजणा' अनेन मक्तात्मनः पुनःकर्माजनसंसर्गेण संसारोऽस्तीति वदन मस्करीदर्शनं प्रत्याख्यातं । । णिच्चा , अनेन प्रतिक्षण विनश्वरचित्पर्याया एव एकसंतानवर्तिनः परमार्थतो नित्यद्रव्यं नेति वदंतीति बौद्धप्रत्यवस्था प्रतिव्यूढा । 'अट्ठगुणा' अनेन ज्ञानादि गुणानामत्यन्तोच्छित्तिरात्मनो मुक्तिरिति वदन्नैयायिकवैशेषिकाभिप्रायः प्रत्युक्तः । ‘किदकिच्चा' अनेन ईश्वरः सदा मुक्तोऽपि जगन्निर्मापणे कृता. दरत्वेनाकृतकृत्य इति वददीश्वरसृष्टिवादाकूतम् निराकृतम् । 'लोयग्गणिवासिणो' अनेन आत्मनः ऊर्ध्वगमनस्वाभाव्यात् मुक्तावस्थायां क्वचिदपि विश्रामाभावात् उपर्युपरि गमनामति वदन् मांडलिकमतम् प्रत्यस्तं । जी. प्र. टी. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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