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________________ १, १, २२. ] संत-परूवणाणुयोगद्दारे गुणडाणवण्णणं [ १९९ स्वरूपहानिप्रसङ्गात् । प्रमेयमपि मैवमैक्षिष्टांसहायत्वादिति चेन्न, तस्य तत्स्वभावत्वात् । न हि स्वभावाः परपर्यनुयोगार्हाः अव्यवस्थापत्तेरिति । पञ्चसु गुणेषु कोऽत्र गुण इति चत्क्षीणाशेषघातिकर्मत्वान्निरस्यमानाघातिकर्मत्वाच्च क्षायिको गुणः । उक्तं चसेलेसि संपत्तो णिरुद्ध - णिस्सेस- आसवो जीवो । कम्म- रय-विप्पभुक्को गय-जोगो केवली होई ॥। १२६ ।। मोक्षस्य सोपानभूतानि चतुर्दश गुणस्थानानि प्रतिपाद्य संसारातीतगुणप्रतिपादनार्थमाह सहायता की अपेक्षा नहीं करता है, अन्यथा ज्ञानके स्वरूपकी हानिका प्रसंग आ जायगा । शंका - यदि केवलज्ञान असहाय है तो वह प्रमेय को भी मत जाने ? समाधान - ऐसा नहीं है, क्योंकि, पदार्थोंको जामना उसका स्वभाव है । और वस्तुके स्वभाव दूसरों के प्रश्नोंके योग्य नहीं हुआ करते हैं । यदि स्वभाव में भी प्रश्न होने लगें तो फिर वस्तुओंकी व्यवस्था ही नहीं बन सकेगी । शंका - पांच प्रकारके भावोंमेंसे इस गुणस्थानमें कौनसा भाव है ? समाधान - संपूर्ण घातिया कर्मोके क्षीण हो जाने से और थोड़े ही समय में अघातिया कर्मो के नाशको प्राप्त होनेवाले होनेसे इस गुणस्थानमें क्षायिक भाव है। कहा भी है जिन्होंने अठारह हजार शीलके स्वामीपनेको प्राप्त कर लिया है, अथवा जो मेरुके समान निष्क्रम्प अवस्थाको प्राप्त हो चुके हैं, जिन्होंने संपूर्ण आश्रवका निरोध कर दिया है, जो नूतन बंधनेवाले कर्म-रजसे रहित हैं, और जो मन, वचन तथा काय योगसे रहित होते हुए केवलज्ञान से विभूषित हैं उन्हें अयोगकेवली परमात्मा कहते हैं ॥ १२६ ॥ मोक्षके सोपानभूत चौदह गुणस्थानों का प्रतिपादन करके अब संसारसे अतीत गुणस्थानके प्रतिपादन करने के लिये आगेका सूत्र कहते हैं १ विशेष जिज्ञासुभिः अष्टसहस्री पृ. २३६-२३७. प्रमेयक मलमार्तण्डः पृ. ११२ ११६. दृष्टव्यः । २ प्रतिषु माक्षिष्ट ' इति पाठः । १३ शिलाभिर्निर्वृतः शिलानां वाऽयमिति शैलस्तेषामीशः शैलेशो मेरुः शैलेशस्येयं, स्थिरतासाम्यात् परमशुक्लध्याने वर्तमानः शैलेशीमानभिधीयते, अभेदोपचारात् स एव शैलेशी, मेरुरिवाप्रकम्पो यस्यामवस्थायां सा शैलेश्यवस्था । अथवा पूर्वमस्थिरतयाऽशैलेशो भूत्वा पश्चात्स्थिरतयैव यस्यामवस्थायां शैलेशानुकारी भवति स सा । अथवा सेलेसी होई xx सोऽतिथिरताए सेलोव्व इसति स ऋषिः स्थिरतया शैल इव भवति । अथवा सेलेसी भण्णइ सेलेसी होइ मागधदेशीभाषया से सो अलेसीभवति तस्यामवस्थायां, अकारलोपात् । अथवा सेलेसोनिश्वयतः शीलं समाधानं, स च सर्वसंवरस्तस्येशः, तस्य शीलेशस्य यावस्था सा शैलेशी अवस्थोच्यते । बि. भा. को. वृ. पृ. ८६६. ४ गो. जी. ६५. तत्र 'सलिसि ' इति पाठः । शीलानां अष्टादशसहस्रसंख्यानां ऐश्यं ईश्वरत्वं स्वामित्वं संप्राप्तः । मं. प्र. टी. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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