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________________ छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, १, २२. मनसः समुत्पद्यमानमुपलब्धं श्रुतं वा, येनैपारेकोत्पद्येत । क्षायोपशमिको हि बोधः क्वचिन्मनस उत्पद्यते । मनसोऽभावाद्भवतु तस्यैवाभावः, न केवलस्य तस्मात्तस्योत्पत्तेरभावात् । सयोगस्य केवलिनः केवलं मनसः समुत्पद्यमानं समुपलभ्यत इति चेन्न, स्वावरणक्षयादुत्पन्नस्याक्रमस्य पुनरुत्पत्तिविरोधात् । ज्ञानत्वान्मत्यादिज्ञानवत्कारकमपेक्षते केवलमिति चेन्न, क्षायिकक्षायोपशमिकयोः साधाभावात् । प्रतिक्षणं विवर्तमानानर्थानपरिणामि केवलं कथं परिछिनत्तीति चेन्न, ज्ञेयसमविपरिवर्तिनः केवलस्य तदविरोधात् । शेयपरतन्त्रतया विपरिवर्तमानस्य केवलस्य कथं पुनर्नवोत्पत्तिरिति चेन्न, केवलोपयोगसामान्यापेक्षया तस्योत्पत्तेरभावात् । विशेषापेक्षया च नेन्द्रियालोकमनोभ्यस्तदुत्पत्तिर्विगतावरणस्य तद्विरोधात् । केवलमसहायत्वान्न तत्सहायमपेक्षते किसीने सुना ही, जिससे कि यह शंका उत्पन्न हो सके । क्षायोपशमिक ज्ञान अवश्य ही कहीं पर (संशी पंचेन्द्रियों में ) मनसे उत्पन्न होता है। इसलिये अयोगकेवलीके मनका अभाव होनेसे क्षायोपशमिक ज्ञानका ही अभाव सिद्ध होगा, न कि केवलज्ञानका, क्योंकि, अयोगकेवलियोंके मनसे केवलज्ञानकी उत्पत्ति नहीं होती है। शंका-सयोगकेवलोके तो केवलज्ञान मनसे उत्पन्न होता हुआ उपलब्ध होता है ? समाधान- यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि, जो ज्ञान शानावरण कर्मके क्षयसे उत्पन्न है और जो अक्रमवर्ती है, उसकी मनसे पुनः उत्पत्ति मानना विरुद्ध है। शंका-जिसप्रकार मति आदि ज्ञान, स्वयं ज्ञान होनेसे अपनी उत्पत्तिमें कारककी अपेक्षा करते हैं, उसीप्रकार केवलज्ञान भी ज्ञान है, अतएव उसे भी अपनी उत्पत्तिमें कारककी अपेक्षा करनी चाहिये। ___ समाधान नहीं, क्योंकि, क्षायिक और क्षायोपशमिक ज्ञानमें साधर्म्य नहीं पाया जाता है। शंका-अपरिवर्तनशील केवलज्ञान प्रत्येक समयमें परिवर्तनशील पदार्थोंको कैसे जानता है ? समाधान-ऐसी शंका ठीक नहीं है, क्योंकि, ज्ञेय पदार्थों को जाननेके लिये तदनुकूल परिवर्तन करनेवाले केवलज्ञानके ऐसे परिवर्तनके मान लेने में कोई विरोध नहीं आता है। शंका-क्षेयकी परतन्त्रतासे परिवर्तन करनेवाले केवलज्ञानकी फिरसे उत्पत्ति क्यों नहीं मानी जाय? समाधान-नहीं, क्योंकि, केवलज्ञानरूप उपयोग-सामान्यकी अपेक्षा केवलज्ञानकी पुन: उत्पत्ति नहीं होती है। विशेषकी अपेक्षा उसकी उत्पत्ति होते हुए भी वह (उपयोग) इन्द्रिय, मन और आलोकसे उत्पन्न नहीं होता है, क्योंकि, जिसके शानावरणादि कर्म नष्ट हो गये हैं ऐसे केवलज्ञानमें इन्द्रियादिककी सहायता माननेमें विरोध आता है। दूसरी बात यह है कि केवलज्ञान स्वयं असहाय है, इसलिये वह इन्द्रियादिकोंकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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