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________________ १, १, २२. ] संत-परूवणाणुयोगद्दारे गुणहाणवण्णणं त्वेन श्रद्धाप्यमानस्योपलम्भात् । अप्रमाणमिदानीन्तन आगमः आरातीयपुरुषव्याख्यातार्थत्वादिति चेन्न, ऐदयुगीनज्ञानविज्ञानसम्पन्नतया प्राप्तप्रामाण्यैराचायैर्व्याख्यातार्थत्वात् । कथं छद्मस्थानां सत्यवादित्वमिति चेन्न यथाश्रुतव्याख्यातॄणां तदविरोधात् । प्रमाणभूतगुरुपर्वक्रमेणायातोऽयमर्थ इति कथमवसीयत इति चेन्न, दृष्टविषये सर्वत्राविसंवादात्, अदृष्टविषयेऽप्यविसंवादिनागमभावेनैकत्वे सति सुनिश्चितासम्भवद्भाधकप्रमाणत्वात्', ऐदयुगीनज्ञानविज्ञानसम्पन्नभूयसामाचार्याणामुपदेशाद्वा तदवगतेः । न च भूयांसः साधवो विसंवदन्ते तथान्यत्रानुपलम्भात् । प्रमाणपुरुषव्याख्यातार्थत्वात् स्थितं वचनस्य प्रामाण्यम् । ततो मनसोऽभावेऽप्यस्ति केवलज्ञानमिति सिद्धम् । अथवा न केवलज्ञानं योग्य है ऐसे आगमकी आज भी उपलब्धि होती है । शंका - आधुनिक आगम अप्रमाण है, क्योंकि, अर्वाचीन पुरुषोंने इसके अर्थका व्याख्यान किया है ? [१९७ समाधान - यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि, इस कालसंबन्धी ज्ञान-विज्ञानसे सहित होने के कारण प्रमाणताको प्राप्त आचार्योंके द्वारा इसके अर्थका व्याख्यान किया गया है, इसलिये आधुनिक आगम भी प्रमाण है । शंका--छद्मस्थोंके सत्यवादीपना कैसे माना जा सकता है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, श्रुतके अनुसार व्याख्यान करनेवाले आचार्य के प्रमाणता मानने में कोई विरोध नहीं है । शंका - आगमका यह विवक्षित अर्थ प्रामाणिक गुरुपरंपराके क्रमसे आया हुआ है, यह कैसे निश्चय किया जाय ? समाधान- नहीं, क्योंकि, प्रत्यक्षभूत विषय में तो सब जगह विसंवाद उत्पन्न नहीं होनेसे निश्चय किया जा सकता है । और परोक्ष विषयमें भी, जिसमें परोक्ष-विषयका वर्णन किया गया है वह भाग अविसंवादी आगमके दूसरे भागोंके साथ आगमकी अपेक्षा एकताको प्राप्त होने पर, अनुमानादि प्रमाणोंके द्वारा बाधक प्रमाणों का अभाव सुनिश्चित होनेसे उसका निश्चय किया जा सकता है । अथवा, आधुनिक ज्ञान-विज्ञान से युक्त अनेक आचार्योंके उपदेशले उसकी प्रमाणता जानना चाहिये । और बहुतसे साधु इस विषय में विसंवाद नहीं करते हैं, क्योंकि, इसतरहका विसंवाद कहीं पर भी नहीं पाया जाता है । अतएव आगमके अर्थके व्याख्याता प्रामाणिक पुरुष हैं इस बातके निश्चित हो जानेसे आर्ष-वचनकी प्रमाणता भी सिद्ध हो जाती है । और आर्ष-वचनकी प्रमाणता के सिद्ध हो जानेसे मनके अभाव में भी केवलज्ञ (न होता है यह बात भी सिद्ध हो जाती है । अथवा, केवलज्ञान मनसे उत्पन्न होता हुआ न तो किसीने उपलब्ध किया और न १ यथा वाधुनात्र चास्मदादीनां प्रत्यक्षादिति न तद्बाधकं तथान्यत्रान्यदान्येषां च विशेषाभावादिति सिद्ध सुनिश्चितासंभवद्वाधकत्वमस्य तथ्यतां साधयति । त. लो. वा. पू. ७० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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