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________________ १, १, २४.] संत-परूवणाणुयोगदारे गदिमग्गणापरूवर्ण चोदसण्हं गुणहाणाणं ओघ-परूवणं काऊण आदेस-परूवणहूँ सुतमाह आदेसेण गदियाणुवादेण अस्थि णिरयगदी तिरिक्खगदी मणुस्सगदी देवगदी सिद्धगदी चेदि ॥ २४ ॥ आदेशग्रहणं सामर्थ्यलभ्यमिति न वाच्यमिति चेन्न, स्पष्टीकरणार्थत्वात् । गतिरुक्तलक्षणा, तस्याः वदनं वादः । प्रसिद्धस्याचार्यपरम्परागतस्यार्थस्य अनु पश्चाद् वादोऽनुवादः । गतेरनुवादो गत्यनुवादः, तेन गत्यनुवादेन । 'हिंसादिष्वसदनुष्ठानेषु व्यापृताः निरतास्तेषां गतिर्निरतगतिः । अथवा नरान् प्राणिनः कायति पातयति खलीकरोति इति नरकः कर्म, तस्य नरकस्यापत्यानि नारकास्तेषां गति रकगतिः। अथवा यस्या उदयः सकलाशुभकर्मणामुदयस्य सहकारिकारणं भवति सा नरकगतिः । अथवा द्रव्यक्षेत्रकाल चौदह गुणस्थानोंका सामान्य प्ररूपण करके अब विशेष प्ररूपणके लिये आगेका सूत्र कहते हैं आदेश-प्ररूपणाकी अपेक्षा गत्यनुवादसे नरकगति, तिर्यंचगति, मनुष्यगति, देवगति और सिद्धगति है ॥२४॥ शंका- आदेश पदका ग्रहण सामर्थ्य लभ्य है, इसलिये इस सूत्रमें उसका फिरसे ग्रहण नहीं करना चाहिये ? समाधान- नहीं, क्योंकि, स्पष्टीकरण करनेके लिये आदेश पदका सूत्रमें ग्रहण किया है। गतिका लक्षण पहले कह आये हैं। उसके कथन करनेको वाद कहते हैं। आचार्य-परपरासे आये हुए प्रसिद्ध अर्थका तदनुसार कथन करना अनुवाद है। इसतरह गतिका आचार्य-परंपराके अनुसार कथन करना गत्यनुवाद है, उससे अर्थात् गत्यनुवादसे नरकगति आदि गतियां होती हैं । जो हिंसादिक असमीचीन कार्यों में व्याप्त हैं उन्हें निरत कहते हैं, और उनकी गतिको निरतगति कहते हैं। अथवा, जो नर अर्थात् प्राणियों को काता है अर्थात् गिराता है, पीसता है उसे नरक कहते हैं। नरक यह एक कर्म है। इससे जिनकी उत्पत्ति होती है उनको नारक कहते हैं, और उनकी गतिको नारकगति कहते हैं । अथवा, जिस गतिका उदय संपूर्ण अशुभ कर्मों के उदयका सहकारी-कारण है उसे नरकगति कहते हैं । अथवा, जो द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावमें तथा परस्परमें रत नहीं है, अर्थात् १ अधस्तनसन्दर्भेण गो. जीवकाण्डस्य गा. १४७ तमस्य जी. प्र. टीका प्रायेण समीना। २ प्रतिषु — अपत्यं' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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