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________________ १८६] छक्खंडागमे जीवाणं [१, १, १७. काश्चिदुपरिष्टादुपशमयिष्यतीति औपशमिकोऽयं गुणः । काश्चित् प्रकृतीः' क्षपयति काश्चिदुपरिष्टात् क्षपयिष्यतीति क्षायिकश्च । सम्यक्त्वापेक्षया चारित्रमोहक्षपकस्य क्षायिक एव गुणस्तत्रान्यस्यासम्भवात् । उपशमकस्यौपशमिकः क्षायिकश्चोभयोरपि तत्राविरोधात् । आपकोपशमकयोर्द्वित्वं किमिति नेष्यत इति चेन्न, गुणनिबन्धनानिवृत्तिपरिणामानां साम्यप्रदर्शनार्थं तदेकत्वोपपत्तेः । उक्तं च एक्कम्मि काल-समए संठाणादीहि जह णिवद॒ति । ण णिवदंति तह च्चिय परिणामेहिं मिहो जे हु ॥१५९ ॥ होंति अणियट्टिणो ते पडिसमय जेस्सिमेक्कपरिणामा । विमलयर-झाण-हुयवह-सिहाहि णिद्दद्ध-कम्म-वणा ॥ १२० ॥ इस गुणस्थानमें जीव मोहकी कितनी ही प्रकृतियोंका उपशमन करता है, और कितनी ही प्रकृतियोंका आगे उपशम करेगा, इस अपेक्षासे यह गुणस्थान औपशमिक है । और कितनी ही प्रकृतियोंका क्षय करता है, तथा कितनी ही प्रकृतियोंका आगे क्षय करेगा, इस दृष्टिस क्षायिक भी है । सम्यग्दर्शनकी अपेक्षा चारित्रमोहका क्षय करनेवालेके यह गुणस्थान सायिकभावरूप ही है, क्योंकि, क्षपकश्रेणी में दूसरा भाव संभव ही नहीं है । तथा चारित्रमोहनीयका उपशम करनेवालेके यह गुणस्थान औपशमिक और क्षायिक दोनों भावरूप है, क्योंकि, उपशमश्रेणीकी अपेक्षा वहां पर दोनों भाव संभव हैं। शंका-क्षपकका स्वतन्त्र गुणस्थान और उपशमकका स्वतन्त्र गुणस्थान, इसतरह अलग अलग दो गुणस्थान क्यों नहीं कहे गये हैं ? समाधान-नहीं, क्योंकि, इस गुणस्थानके कारणभूत अनिवृत्तिरूप परिणामोंकी समानता दिखानेके लिये उन दोनों में एकता बन जाती है । अर्थात् उपशमक और क्षपक इन दोनोंके अनिवृत्तिरूप परिणामोंकी अपेक्षा समानता है। कहा भी है अन्तर्मुहूर्तमात्र अनिवृत्तिकरणके कालमेंसे किसी एक समयमें रहनेवाले अनेक जीव जिसप्रकार शरीरके आकार, वर्ण आदि बाह्यरूपसे, और ज्ञानोपयोग आदि अन्तरंग रूपसे परस्पर भेदको प्राप्त होते हैं, उसप्रकार जिन परिणामोंके द्वारा उनमें भेद नहीं पाया जाता है उनको अनिवृत्तिकरण परिणामवाले कहते हैं। और उनके प्रत्येक समयमें उत्तरोत्तर अनन्तगुणी विशुद्धिसे बढ़ते हुए एकसे ही (समान विशुद्धिको लिये हुए) परिणाम पाये जाते हैं। १ नरकद्विकं तिर्यग्द्विकं विकलत्रयं स्यानगृद्धित्रयमुद्योतः आतपः एकेन्द्रियं साधारणं सूक्ष्मं स्थावर चेति षोडश अप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानकषाया अष्टौ, क्रमेण षंढवेदः स्त्रीवेदो नोकषायषटुं, पुंवेदः संज्वलनक्रोधः संज्वलनमानः संज्वलनमाया एताः स्थूले अनिवृत्तिकरणे [ सत्त्व- ] व्युच्छिन्ना भवन्ति । गो. क., जी. प्र., टी. ३३८-३३९. २ संस्थानवर्णावगाहनलिंगादिभिबहिरंगनिदर्शनादिभिश्चान्तरगैः । गो. जी., म. प्र., दी. ५६. ३ गो. जी. ५७, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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