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________________ १, १, १७.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे गुणहाणवण्णणं द्रव्यार्थिकनयसमाश्रयणात् । बादरग्रहणमन्तदीपकत्वाद् गताशेषगुणस्थानानि बादरकषायाणीति प्रज्ञापनार्थम्, 'सति संभवे व्यभिचारे च विशेषणमर्थवद्भवति' इति न्यायात् । संयतग्रहणमनर्थकमिति चेनैष दोषः, संयमस्य पञ्चस्वपि गुणेषु सम्भव एव न व्यभिचार इत्यस्यान्यस्याधिगमोपायस्याभावतस्तदुक्तेः । आद्यं संयतग्रहणमनुवतेते, ततस्तदवसीयत इति चेत्तर्वस्तु जडजनानुग्रहार्थमिति । यद्येवमुपशान्तकषायादिष्वपि संयतग्रहणमस्त्विति चेन्न, सकषायत्वेन संयतानामसंयतैः साधर्म्यमस्तीति मन्दधियामधः संशयोत्पत्तिसम्भवात् । नोपशान्तकषायादिषु मन्दधियामप्यारेकोत्पद्यते । क्षीणोपशान्तकषायाः संयताः, भावतोऽसंयतैस्संयतानां साधाभावात् । काश्चित्प्रकृतीरुपशमयति, जांय तो व्यवहार ही नहीं चल सकता है, इसलिये द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा नियत-संख्यावाले ही गुणस्थान कहे गये हैं। सूत्रमें जो ‘बादर' पदका ग्रहण किया है, वह अन्तदपिक होनेसे पूर्ववर्ती समस्त गुणस्थान बादरकषाय हैं इस बातका ज्ञान करानेके लिये ग्रहण किया है, ऐसा समझना चाहिये, क्योंकि, जहां पर विशेषण संभव हो अर्थात् लागू पड़ता हो और न देने पर व्यभिचार आता हो, ऐसी जगह दिया गया विशेषण सार्थक होता है, ऐसा न्याय है। शंका-- इस सूत्रमें संयत पदका ग्रहण करना व्यर्थ है ? समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, संयम पांचों ही गुणस्थानोंमें संभव है, इसमें कोई व्यभिचार दोष नहीं आता है, इसप्रकार जाननेका दूसरा कोई उपाय नहीं होनेसे यहां संयम पदका ग्रहण किया है। शंका-'पमत्तसंजदा' इस सूत्रमें ग्रहण किये गये संयत पदकी यहां अनुवृत्ति होती है, और उससे ही उक्त अर्थका ज्ञान भी हो जाता है, इसलिये फिरसे इस पदका ग्रहण करना व्यर्थ है ? समाधान-यदि ऐसा है, तो संयत पदका यहां पुनः प्रयोग मन्दबुद्धि जनोंके अनुग्रहके लिये समझना चाहिये। शंका-यदि ऐसा है, तो उपशान्तकषाय आदि गुणस्थानों में भी संयत पदका ग्रहण करना चाहिये? समाधान-नहीं, क्योंकि, दशवें गुणस्थानतक सभी जीव कषायसहित होनेके कारण, कषायकी अपेक्षा संयतोंकी असंयतोंके साथ सदृशता पाई जाती है, इसलिये नीचेके दशवें गुणस्थानतक मन्दबुद्धि-जनोंको संशय उत्पन्न होनेकी संभावना है। अतः संशयके निवारणके लिये संयत विशेषण देना आवश्यक है। किंतु ऊपरके उपशान्तकषाय आदि गुणस्थानोंमें मन्दबुद्धि-जनोंको भी शंका उत्पन्न नहीं हो सकती है, क्योंकि, वहां पर संयत क्षीणकषाय अथवा उपशान्तकषायही होते हैं, इसलिये भावोंकी अपेक्षा भी संयतोंकी असंयतोंसे सदृशता नहीं पाई जाती है । अतएव वहां पर संयत विशेषण देना आवश्यक नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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