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________________ १८ ] छक्खंडागमे जीवाणं [ १, १, १७. वृत्तिः, न विद्यते निवृत्तिर्येषां तेऽनिवृत्तयः । अपूर्वकरणाथ तादृक्षाः केचित्सन्तीति तेषामप्ययं व्यपदेशः प्राप्नोतीति चेन्न तेषां नियमाभावात् । समानसमयस्थितजीवपरिणामानामिति कथमधिगम्यत इति चेन्न, 'अपूर्वकरण' इत्यनुवर्तनादेव द्वितीयादिसमयवर्तिजीवैः : सह परिणामापेक्षया भेदसिद्धेः । साम्परायाः कषायाः, बादराः स्थूलाः, बादराव ते साम्परायाथ बादरसाम्परायाः । अनिवृत्तयश्च ते बादरसाम्परायाश्च अनिवृत्तिबादरसाम्परायाः । तेषु प्रविष्टा शुद्धिर्येषां संयतानां तेऽनिवृत्तिवादरसाम्परायप्रविष्टशुद्धिसंयताः । तेषु सन्ति उपशमकाः क्षपकाच । ते सर्वे एको गुणोऽनिवृत्तिरिति । यावन्तः परिणामास्तावन्त एव गुणाः किन्न भवन्तीति चेन, तथा व्यवहारानुपपतितो निवृत्ति शब्दका अर्थ व्यावृत्ति भी है। अतएव जिन परिणामों को निवृत्ति अर्थात् व्यावृत्ति नहीं होती है उन्हें ही अनिवृत्ति कहते हैं । शंका - अपूर्वकरण गुणस्थानमें भी तो कितने ही परिणाम इसप्रकार के होते हैं, अतएब उन परिणामों को भी अनिवृत्ति संज्ञा प्राप्त होनी चाहिये ? समाधान - नहीं, क्योंकि, उनके निवृत्तिरहित होने का कोई नियम नहीं है । शंका- - इस गुणस्थानमें जो जीवों के परिणामोंकी भेदरहित वृत्ति बतलाई है, वह समान समयवर्ती जीवोंके परिणामोंकी ही विवक्षित है यह कैसे जाना ? समाधान - 'अपूर्वकरण' पदकी अनुवृत्तिसे ही यह सिद्ध होता है, कि इस गुणस्थानमें प्रथमादि समयवर्ती जीवोंका द्वितीयादि समयवर्ती जीवोंके साथ परिणाम की अपेक्षा भेद है । ( अतएव इससे यह तात्पर्य निकल आता है कि ' अनिवृत्ति' पदका सम्बन्ध एकसमयवर्ती परिणामोंके साथ ही है । ) सांपराय शब्दका अर्थ कषाय है, और बादर स्थूलको कहते हैं, इसलिये स्थूलकषायों को बादर-सांपराय कहते हैं । और अनिवृत्तिरूप बादर सांपरायको अनिवृत्तिबादरसां पराय कहते हैं । उन अनिवृत्तिबादरसां परायरूप परिणामोंमें जिन संतोंकी विशुद्धि प्रविष्ट हो गई है उन्हें अनिवृत्तिबादर सांप रायप्रविप्रशुद्धिसंयत कहते हैं । ऐसे संयत में उपशमक और क्षपक दोनों प्रकारके जीव होते हैं । और उन सब संयतों का मिलकर एक अनिवृत्तिकरण गुणस्थान होता है । शंका - जितने परिणाम होते हैं, उतने ही गुणस्थान क्यों नहीं होते हैं ? समाधान- नहीं, क्योंकि, जितने परिणाम होते हैं, उतने ही गुणस्थान यदि माने १ युगपदेत गुणस्थानकं प्रतिपन्नानां बहूनामपि जीवानामन्योन्यमव्यवसायस्थानस्य व्यावृत्तिर्नास्त्यस्येति अनिवृत्तिः । समकालमेतद् गुणस्थानकमारूढस्यापरस्य यदव्यवसायस्थानं विवक्षितोऽन्योऽपि कश्चित्तद्वत्यैवेत्यर्थः । संपरैति पर्यटति संसारमनेनेति संपरायः कषायोदयः । x x तत्र चान्तर्मुहूर्ते यावन्तः समयास्तत्प्रविष्टानां तावन्त्येवाध्यवसायस्थानानि भवन्ति । एकसमयप्रविष्टानामेकस्यैवाव्यवसाय स्थानस्यानुवर्तनादिति । अभि. रा. को. ( अणि बादरसं पराय गुणट्ठाण ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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