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________________ १६२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, १,९. तस्येह पुनरुच्चारणमनर्थकमिति न, तस्य दुर्मेधोजनानुग्रहार्थत्वात् । सर्वसत्त्वानुग्रहकारिणो हि जिनाः नीरागत्वात् । सन्ति मिथ्यादृष्टयः । मिथ्या वितथा व्यलीका असत्या दृष्टिदर्शनं विपरीतैकान्तविनयसंशयाज्ञानरूपमिथ्यात्वकोदयजनिता येषां ते मिथ्यादृष्टयः। जावदिया वयण वहा तावदिया चेव होति णय-वादा । जावदिया णय-वादा तावदिया चेव पर-समया' ॥ १०५ ॥ इति वचनान्न मिथ्यात्वपञ्चकनियमोऽस्ति किन्तूपलक्षणमात्रमेतदभिहितं पञ्चविधं मिथ्यात्वमिति । अथवा मिथ्या वितथं, तत्र दृष्टिः रुचिः श्रद्धा प्रत्ययो येषां ते मिथ्यादृष्टयः । उक्तं च-- मिच्छत्तं वेयंतो जीवो विवरीय-दसणो होइ । ण य धम्मं रोचेदि हु महुरं खु रसं जहा जरिदो ॥ १०६ ॥ उच्चारण करना निष्प्रयोजन है ? समाधान-ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि, अल्पबुद्धि या मूढजनोंके अनुग्रहके लिये सूत्रमें 'ओघ' शब्दका उल्लेख किया है । जिनदेव संपूर्ण प्राणियोंका अनुग्रह करनेवाले होते हैं, क्योंकि, वे वीतराग हैं। 'मिथ्यादृष्टि जीव हैं ' यहां पर मिथ्या, वितथ, व्यलीक और असत्य ये एकार्थवाची नाम हैं । दृष्टि शब्दका अर्थ दर्शन या श्रद्धान है। इससे यह तात्पर्य हुआ कि जिन जीवोंके विपरीत, एकान्त, विनय, संशय और अज्ञानरूप मिथ्यात्व कके उदयसे उत्पन्न हुई मिथ्यारूप दृष्टि होती है उन्हें मिथ्यादृष्टि जीव कहते हैं। जितने भी वचन-मार्ग हैं उतने ही नय-वाद अर्थात् नय के भेद होते हैं और जितने नय वाद हैं उतने ही पर-समय (अनेकान्त-बाह्य मत ) होते हैं ॥ १०५ ॥ इस वचनके अनुसार मिथ्यात्वके पांच ही भेद हैं यह कोई नियम नहीं समझना चाहिये, किंतु मिथ्यात्व पांच प्रकारका है यह कहना उपलक्षणमात्र है। अथवा, मिथ्या शब्दका अर्थ वितथ और दृष्टि शब्दका अर्थ रुचि, श्रद्धा या प्रत्यय है। इसलिये जिन जीवोंकी रुचि असत्यमें होती है उन्हें मिथ्यादृष्टि कहते हैं। कहा भी है मिथ्यात्व प्रकृतिके उदयसे उत्पन्न होनेवाले मिथ्यात्वभावका अनुभव करनेवाला जीव विपरीत-श्रद्धावाला होता है। जिसप्रकार पित्तज्वरसे युक्त जीवको मधुर रस भी अच्छा मालूम १ गाथेयं पूर्वमपि ६७ गाथाङ्केन आगता । २ एवं स्थूलांशाश्रयेण मिथ्यात्वस्य पंचविधत्वं कथितं सूक्ष्मांशाश्रयेणासंख्यातलोकमात्रविकल्पसंभवात तत्र व्यवहारानुपपत्तेः । गो. जी., जी. प्र., टी. १५. ३ गो. जी. १७. Jain Education International For Private & Personal Use Only ... www.jainelibrary. www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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