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________________ १, १, ९. ] संत-परूवणाणुयोगद्दारे गुणडाणवण्णणं [ १६१ पारिणामिका इति गुणाः । अस्य गमनिका, कर्मणामुदयादुत्पन्नो गुणः औदयिकः, तेषामुपशमादौपशमिकः, क्षयात्क्षायिकः, तत्क्षयादुपशमाच्चोत्पन्नो गुणः क्षायोपशमिकः । कर्मोदयोपशमक्षयक्षयोपशममन्तरेणोत्पन्नः पारिणामिकः । गुणसंज्ञां प्रतिलभते । उक्तं च गुणसहचरितत्वादात्मापि जेहि दुलक्खिज्जंते उदयादिसु संभवेहि भावेहि । जीवा ते गुण-सण्णा णिदिट्ठा सव्वदरिसीहि ॥ १०४ ॥ ओघनिर्देशार्थमुत्तरसूत्रमाह ओघेण अस्थि मिच्छाइट्ठी ॥ ९ ॥ यथोद्देशस्तथा निर्देश इति न्यायात् ओघाभिधानमन्तरेणापि अघोऽवगम्यते प्रकार है । जो कर्मोंके उदयसे उत्पन्न कर्मोंके उपशमसे उत्पन्न होता है क्षयसे उत्पन्न होता है उसे क्षायिक प्रकारके गुण अर्थात् भाव हैं। इनका खुलासा इस होता है उसे औदायिक भाव कहते हैं । जो उसे औपशमिक भाव कहते है । जो कर्मोंके भाव कहते हैं । जो वर्तमान समय में सर्वघाती स्पर्धकोंके उदयाभावी क्षयसे और अनागत कालमें उदयमें आनेवाले सर्वघाती स्पर्धकोंके सदवस्थारूप उपशमसे उत्पन्न होता है उसे क्षायोपशमिक भाव कहते हैं । जो कर्मोंके उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशमकी अपेक्षाके विना जीवके स्वभावमात्रसे उत्पन्न होता है उसे पारिणामिक भाव कहते हैं । इन गुणोंके साहचर्य से आत्मा भी गुणसंज्ञाको प्राप्त होता है । कहा भी है दर्शनमोहनीय आदि कर्मो के उदय, उपशम आदि अवस्थाओंके होने पर उत्पन्न हुए जिन परिणामोंसे युक्त जो जीव देखे जाते हैं उन जीवोंको सर्वज्ञदेवने उसी गुणसंज्ञावाला कहा है ॥ १०४ ॥ अब ओघ अर्थात् गुणस्थान प्ररूपणा का कथन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैंसामान्यसे गुणस्थानकी अपेक्षा मिथ्यादृष्टि जीव हैं ॥ ९ ॥ शंका--' उद्देशके अनुसार ही निर्देश होता है' इस न्यायके अनुसार ' ओघ ' इस शब्द के कहे बिना भी ' ओघ' का ज्ञान हो ही जाता है, इसलिये उसका सूत्रमें फिरसे १ गो. जी. ८. अनेन गुणशब्दनिरुक्तिप्रधान सूत्रेण मिथ्यात्वादयोऽयोगिकेवलित्वपर्यन्ता जीवपरिणामविशेषाः त एव गुणस्थानानीति प्रतिपादितम् । जी. प्र. टी. २ ननु यदि मिथ्या दृष्टिस्ततः कथं तस्य गुणस्थान संभवः । गुणा हि ज्ञानादिरूपास्तत्कथं ते दृष्टौ विपर्यस्तायां मवेयुरिति ? उच्यते, इह यद्यपि सर्वथातिप्रबलमिध्यात्वमोहनीयोदयादहेत्प्रणीतजीवाजीवादिवस्तुप्रतिपत्तिरूपा दृष्टिरसुमतो विपर्यस्ता भवति, तथापि काचिन्मनुष्यपश्वादिप्रतिपत्तिरविपर्यस्ता, ततो निगोदावस्थायामपि तथाभूताव्यक्तस्पर्शमात्रप्रतिपत्तिरविपर्यस्ता भवति अन्यथाऽजीवत्वप्रसंगात् । अभि. रा. को. (मिच्छाइट्टिगुणट्ठाण ) Jain Education International. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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