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________________ १६०] छक्खंडागमे जीवहाणं [१, १, ८. प्रतीत्यादि । अत्रास्तित्ववाचको ग्राह्यः । निर्देशः प्ररूपणं विवरणं व्याख्यानमिति यावत् । स द्विविधो द्विप्रकारः, ओपेन आदेशेन च । ओधेन सामान्येनाभेदेन प्ररूपणमेकः। अपरः आदेशेन भेदेन विशेषेण प्ररूपणमिति। न च प्ररूपणायास्तृतीयः प्रकारोऽस्ति सामान्यविशेषव्यतिरिक्तस्यानुपलम्भात् । विशेषव्यतिरिक्तसामान्याभावादादेशप्ररूपणाया एव ओघावगतिः स्यादिति न द्विविधं व्याख्यानमिति चेन्न, संक्षेपविस्तररुचिद्रव्यपर्यायार्थिकसत्वानुग्रहार्थत्वात् । जीवसमास इति किम् ? जीवाः सम्यगासतेऽस्मिन्निति जीवसमासः। कासते ? गुणेषु । के गुणाः ? औदयिकौपशमिकक्षायिकक्षायोपशमिक सत्य कहते हैं। कहीं पर 'सत्' शब्द अस्तित्ववाचक भी पाया जाता है। जैसे, यह सत्यके अस्तित्व अर्थात् सद्भावमें व्रती है। इनमेंसे यहां पर 'सत्' शब्द अस्तित्ववाचक ही लेना चाहिये। निर्देश, प्ररूपण, विवरण और व्याख्यान ये सब पर्यायवाची नाम हैं। वह निर्देश ओघ और आदेशकी अपेक्षा दो प्रकारका है। ओघ, सामान्य या अभेदसे निरूपण करना ओघप्ररूपणा है, और आदेश, भेद या विशेषरूपसे निरूपण करना दसरी आदेशप्ररूपणा है। इन दो प्रकारकी प्ररूपणाओंको छोड़कर वस्तुके विवेचनका और कोई तीसरा प्रकार संभव नहीं है, क्योंकि, वस्तुमें सामान्य और विशेष धर्मको छोड़कर और कोई तीसरा धर्म नहीं पाया जाता है। शंका-विशेषको छोड़कर सामान्य स्वतन्त्र नहीं पाया जाता है, इसलिये आदेशप्ररूपणाके कथनसे ही सामान्यप्ररूपणाका ज्ञान हो जायगा। अतएव दो प्रकारका व्याख्यान करना आवश्यक नहीं है ? समाधान-यह आशंका ठीक नहीं है, क्योंकि, जो संक्षेप-रुचिवाले शिष्य होते हैं वे द्रव्यार्थिक अर्थात् सामान्यप्ररूपणासे ही तत्वको जानना चाहते हैं। और जो विस्तार. रुचिवाले होते हैं वे पर्यायार्थिक अर्थात् विशेषप्ररूपणाके द्वारा तत्वको समझना चाहते हैं, इसलिये इन दोनों प्रकारके प्राणियोंके अनुग्रहके लिये यहां पर दोनों प्रकारकी प्ररूपणाओंका कथन किया है। शंका-जीवसमास किसे कहते हैं ? समाधान -जिसमें जीव भलेप्रकार रहते हैं अर्थात् पाये जाते हैं उसे जीवसमास कहते हैं ? शंका- जीव कहां रहते हैं ? समाधान-गुणोंमें जीव रहते हैं। शंका- वे गुण कौनसे हैं ? समाधान-औदयिक, औपशमिक, क्षायिक क्षायोपशमिक और पारिणामिक ये पांच Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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