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________________ १, १, ४.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे मग्गणासरूववण्णणं [ १४९ कनस्य वृत्तिरालोकनवृत्तिः स्वसंवेदनं, तदर्शनमिति लक्ष्यनिर्देशः । प्रकाशवृत्तिर्वा दर्शनम् । अस्य गमनिका, प्रकाशो ज्ञानम्, तदर्थमात्मनो वृत्तिः प्रकाशवृत्तिस्तद्दर्शनम् । विषयविषयिसंपातात् पूर्वावस्था दर्शनमित्यर्थः । उक्तं च जं सामण्णं गहणं भावाणं णेव कट्ट आयारं । अविसेसिऊण अत्थे दंसणमिदि भण्णदे समएँ ॥ ९३ ॥ लिम्पतीति लेश्या । न भूमिलेपिकयाऽतिव्याप्तिदोषः कर्मभिरात्मानमित्यध्याहारापेक्षित्वात् । अथवात्मप्रवृत्तिसंश्लेषणकरी लेश्या । नात्रातिप्रसङ्गदोषः प्रवृत्तिशब्दस्य कर्मपर्यायत्वात् । अथवा कषायानुरञ्जिता कायवाङ्मनोयोगप्रवृत्तिलेश्या । ततो न केवल: आलोकनवृत्ति या स्वसंवेदन कहते हैं, और उसीको दर्शन कहते हैं। यहां पर दर्शन इस शब्दसे लक्ष्यका निर्देश किया है। अथवा, प्रकाश-वृत्तिको दर्शन कहते हैं। इसका अर्थ इसप्रकार है कि प्रकाश ज्ञानको कहते हैं और उस ज्ञानके लिये जो आत्माका व्यापार होता है उसे प्रकाशवृत्ति कहते हैं, और वही दर्शन है। अर्थात् विषय और विषयोके योग्य देशमें होनेकी पूर्वावस्थाको दर्शन कहते हैं। कहा भी है सामान्यविशेषात्मक बाह्य पदार्थोंको अलग अलग भेदरूपसे ग्रहण नहीं करके जो सामान्य ग्रहण अर्थात् स्वरूपमात्रका अवभासन होता है उसको परमागममें दर्शन कहा है॥९३॥ - जो लिम्पन करती है उसे लेश्या कहते हैं। यहां पर जो लिम्पन करती है यह लक्षण भमिलेपिका (जिसके द्वारा जमीन लीपी जाती है) में चला जाता है, इसलिये लक्ष्यभत लेश्याको छोड़कर लक्षणके अलक्ष्यमें चले जानेके कारण अतिव्याप्ति दोष आता है। ऐसी शंकाको मनमें उठाकर आचार्य कहते हैं कि इसप्रकार लेश्याका लक्षण करने पर भी अतिव्याप्ति दोष नहीं आता है, क्योंकि, इस लक्षणमें 'कौसे आत्माको' इतने अध्याहारकी अपेक्षा है । इसका यह तात्पर्य है, कि जो काँसे आत्माको लिप्त करती है उसको लेश्या कहते हैं । अथवा, जो आत्मा और प्रवृत्ति अर्थात् कर्मका संबन्ध करनेवाली है उसको लेश्या कहते हैं। इसप्रकार लेश्याका लक्षण करने पर अतिप्रसंग दोष भी नहीं आता है, क्योंकि, यहां पर प्रवृत्ति शब्द कर्मका पर्यायवाची ग्रहण किया है । अथवा, कषायसे अनुरंजित काययोग, वचनयोग और मनोयोगकी प्रवृत्तिको लेश्या कहते हैं। इसप्रकार लेश्याका लक्षण करने पर केवल गो. जी. ४८२. भावानां सामान्यविशेषात्मकबाह्यपदार्थानां आकारं भेदग्रहणमकृत्वा यत्सामान्यग्रहणं स्वरूपमात्रावमासनं तदर्शन मिति परमागमे भण्यते । वस्तुस्वरूपमात्रग्रहणं कथं ? अर्थात् बाह्यपदार्थान् अविशेष्यजातिक्रियाग्रहण विकारैरविकल्प्य स्वपरसत्तावभासनं दर्शनमित्यर्थः । जी. प्र. टी. भावाणं सामण्णविसेसयाणं सरूवमेत जं । अण्णणहीणग्गहणं जीवेण य दंसणं होदि । गो. जी. ४८३. २ कषायोदयरञ्जिता योगप्रवृत्तिलेश्या । स. सि., २,६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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