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१४८] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १, ४. दृढीकरणार्थमाह, ‘अविसेसिऊण अटे' इति, अर्थानविशेष्य यद् ग्रहणं तदर्शनमिति । न बाह्यार्थगतसामान्यग्रहणं दर्शनमित्याशङ्कनीयं तस्यावस्तुनः कर्मत्वाभावात् । न च तदन्तरेण विशेषो ग्राह्यत्वमास्कन्दतीत्यतिप्रसङ्गात् । सत्येवमनध्यवसायो दर्शनं स्यादिति चेन्न, स्वाध्यवसायस्यानध्यवासितबाह्यार्थस्य दर्शनत्वात् । दर्शनं प्रमाणमेव अविसंवादित्वात् , प्रतिभासः प्रमाणञ्चाप्रमाणञ्च विसंवादाविसंवादोभयरूपस्य तत्रोपलम्भात् । आलोकनवृत्तिर्वा दर्शनम् । अस्य गमनिका, आलोकत इत्यालोकनमात्मा, वनिं वृत्तिः, आलो
है' इत्यादि रूपसे पदार्थोकी विशेषता न करके जो ग्रहण होता है उसे दर्शन कहते हैं । इस कथनसे यदि कोई ऐसी आशङ्का करे कि बाह्य पदार्थों में रहनेवाले सामान्यको ग्रहण करना दर्शन है, तो उसकी ऐसी आशङ्का करना भी ठीक नहीं है, क्योंकि, विशेषकी अपेक्षा रहित केवल सामान्य अवस्तुखरूप है, इसलिये वह दर्शनके विषयभावको (कर्मपनेको) नहीं प्राप्त हो सकता है । उसीप्रकार सामान्यके विना केवल विशेष भी ज्ञानके द्वारा ग्राह्य नहीं हो सकता है, क्योंकि, अवस्तुरूप केवल विशेष अथवा केवल सामान्यका ग्रहण मान लिया जावे तो अतिप्रसङ्ग दोष आता है।
शंका-दर्शनके लक्षणको इसप्रकारका मान लेने पर अनध्यवसायको दर्शन मानना पड़ेगा?
समाधान-नहीं, क्योंकि, बाह्यार्थका निश्चय न करते हुए भी स्वरूपका निश्चय करनेवाला दर्शन है, इसलिये वह अनध्यवसायरूप नहीं है। ऐसा दर्शन अविसंवादी होनेके कारण प्रमाण ही है। और अनध्यवसायरूप जो प्रतिभास है वह प्रमाण भी है और अप्रमाण भी है, क्योंकि, उसमें विसंवाद और अविसंवाद ये दोनों रूप पाये जाते हैं । (जैसे, मार्गमें चलते हुए तृणस्पर्शके होने पर 'कुछ है' यह ज्ञान निश्चयात्मक है, और 'क्या है' यह ज्ञान अनिश्चयात्मक है। इसलिये अनध्यवसायको उभयरूप कहा है।)
अथवा, आलोकन अर्थात् आत्माके व्यापारको दर्शन कहते हैं। इसका अर्थ यह है, कि जो अवलोकन करता है उसे आलोकन या आत्मा कहते हैं। और वर्तन अर्थात् व्यापारको वृत्ति कहते हैं। तथा आलोकन अर्थात् आत्माकी वृत्ति अर्थात् वेदनरूप व्यापारको
१ यदा कोऽपि परसमयी पृच्छति जैनागमे दर्शनं ज्ञानं चेति गुणद्वयं जीवस्य कथ्यते तत्कथं घटत इति । तदा तेषामात्मग्राहकं दर्शनमिति कथिते सति ते न जानन्ति । पश्चादाचार्यस्तेषां प्रतीत्यर्थ स्थूलव्याख्यानेन बहिर्विषये यत्सामान्यपरिच्छेदनं तस्य सत्तावलोकनदर्शनसंज्ञा स्थापिता, यच्च शुक्लमिदमित्यादिविशेषपरिच्छेदनं तस्य ज्ञानसंज्ञा स्थापितेति दोषो नास्ति । सिद्धान्ते पुनः स्वसमयव्याख्यान मुख्यवृत्त्या। तत्र सूक्ष्मव्याख्याने क्रियमाणे सत्याचारात्मग्राहकं दर्शनं व्याख्यातमित्यत्रापि दोषो नास्ति । बृ. द्र. सं. पृ. ८३.
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