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________________ १, १, ४.] संत-परूपणाणुयोगद्दारे मग्गणासरूववण्णणं . [१४७ प्रमाणम् । अस्तु प्रमाणाभाव इति चेन्न, प्रमाणाभावे सर्वस्याभावप्रसङ्गात् । अस्तु चेन्न, तथानुपलम्भात् । ततः सामान्यविशेषात्मकबाह्यार्थग्रहणं ज्ञानं, तदात्मकस्वरूपग्रहणं दर्शनमिति सिद्धम् । तथा च 'जं सामण्णं गहणं तं दंसणं' इति वचनेन विरोधः स्यादिति चेन्न, तत्रात्मनः सकलबाह्यार्थसाधारणत्वतः सामान्यव्यपदेशभाजो ग्रहणात् । तदपि कथमवसीयत इति चेन्न, 'भावाणं णेव कट्ट आयारं' इति वचनात् । तद्यथा, भावानां बाह्यार्थानामाकारं प्रतिकर्मव्यवस्थामकृत्वा यद् ग्रहणं तद्दर्शनम् । अस्यैवार्थस्य पुनरपि शंका-यदि ऐसा है, तो प्रमाणका अभाव ही क्यों नहीं मान लिया जाय ? समाधान- यह ठीक नहीं है, क्योंकि, प्रमाणका अभाव मान लेने पर प्रमेय, प्रमाता आदि सभीका अभाव मानना पड़ेगा। शंका- यदि प्रमेयादि सभीका ही अभाव होता है तो होओ? समाधान - यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि, प्रमेयादिका अभाव देखने में नहीं आता है, किन्तु उनका सद्भाव ही दृष्टिगोचर होता है। अतः सामान्यविशेषात्मक बाह्य पदार्थको ग्रहण करनेवाला ज्ञान है और सामान्यविशेषात्मक आत्मरूपको ग्रहण करनेवाला दर्शन है, यह सिद्ध हो जाता है। शंका-उक्त प्रकारसे दर्शन और ज्ञानका स्वरूप मान लेने पर 'वस्तुका जो सामान्य ग्रहण होता है उसको दर्शन कहते हैं ' परमागमके इस वचनके साथ विरोध आता है ? समाधान-ऐसा नहीं है, क्योंकि, आत्मा संपूर्ण बाह्य पदार्थों में साधारणरूपसे पाया जाता है, इसलिये उक्त वचनमें सामान्य संज्ञाको प्राप्त आत्माका ही सामान्य पदसे ग्रहण किया गया है। शंका-यह कैसे जाना जाय कि यहां पर सामान्य पदसे आत्माका ही ग्रहण किया है ? समाधान-ऐसी शङ्का करना ठीक नहीं है, क्योंकि, ‘पदाके आकार अर्थात् भेदको नहीं करके' इस वचनसे उक्त कथनकी पुष्टि हो जाती है। इसीको स्पष्ट करते हैं, भावोंके, अर्थात् बाह्य पदार्थोके, आकाररूप प्रतिकर्मव्यवस्थाको नहीं करके, अर्थात् भेदरूपसे प्रत्येक पदार्थको ग्रहण नहीं करके, जो (सामान्य) ग्रहण होता है उसको दर्शन कहते हैं। फिर भी इसी अर्थको दृढ़ करनेके लिये कहते हैं कि 'यह अमुक पदार्थ है, यह अमुक पदार्थ १ यद्यात्मग्राहकं दर्शनं मण्यते तर्हि 'सामपणं गहणं भावाणं तइंसणं' इति गाथार्थः कथं घटते ? तत्रोत्तर, सामान्यग्रहणमात्मग्रहणं तद्दर्शनम् । कस्मादिति चत, आत्मा वस्तुपरिच्छित्तिं कुर्वन्निदं जानामीदं न जानामीति विशेषपक्षपातं न करोति, किन्तु सामान्येन वस्तु परिच्छिनात, तेन कारणेन सामान्यशन्देनात्मा भण्यते । बृ. द्र.सं. पृ. ८२.८३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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