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________________ १५०] छक्खंडागमे जीवट्ठाण [१, १,४. कपायो लेश्या, नापि योगः, अपि तु कषायानुविद्धा योगप्रवृत्तिलेश्येति सिद्धम् । ततो न वीतरागाणां योगो लेश्येति न प्रत्यवस्थेयं तन्त्रत्वाद्योगस्य, न कषायस्तन्त्रं विशेषणत्वतस्तस्य प्राधान्याभावात् । उक्तं च लिंपदि अप्पीकीरदि एदाए णियय-पुण्ण-पावं च । जीवो त्ति होइ लेस्सा लेस्सा-गुण-जाणय-क्खादौ ॥ ९४ ।। निर्वाणपुरस्कृतो भव्यः । उक्तं च सिद्धत्तणस्स जोग्गा जे जीवा ते हवंति भवसिद्धा । ण उ मल-विगमे णियमो ताणं कणगोवलाणमि ।। ९५ ।। कषाय और केवल योगको लेश्या नहीं कह सकते हैं किन्तु कषायानुविद्ध योगप्रवृत्तिको ही लेश्या कहते हैं, यह बात सिद्ध हो जाती है । इससे बारहवें आदि गुणस्थानवर्ती वीतरागियोंके केवल 'योगको लेश्या नहीं कह सकते हैं ऐसा निश्चय नहीं कर लेना चाहिये, क्योंकि, लेश्यामें योगकी प्रधानता है। कषाय प्रधान नहीं है, क्योंकि, वह योगप्रवृत्तिका विशेषण है। अतएव उसकी प्रधानता नहीं हो सकती है । कहा भी है जिसके द्वारा जीव पुण्य और पापसे अपनेको लिप्त करता है, उनके आधीन करता है उसको लेश्या कहते हैं, ऐसा लेश्याके स्वरूपको जाननेवाले गणधरदेव आदिने कहा है ॥९॥ जिसने निर्वाणको पुरस्कृत किया है, अर्थात् जो सिद्धिपद प्राप्त करनेके योग्य है, उसको भव्य कहते हैं । कहा भी है जो जीव सिद्धत्व, अर्थात् सर्व कर्मसे राहत मुक्तिरूप अवस्था पाने के योग्य हैं उन्हें भव्यसिद्ध कहते हैं । किंतु उनके कनकोपल अर्थात् स्वर्णपाषाणके समान मलका नाश होनेमें नियम नहीं है। विशेषार्थ-सिद्धत्वकी योग्यता रखते हुए भी कोई जीव सिद्ध अवस्थाको प्राप्त कर लेते हैं और कोई जीव सिद्ध अवस्थाको नहीं प्राप्त कर सकते हैं । जो भव्य होते हुए भी सिद्ध अवस्थाको नहीं प्राप्त कर सकते हैं, उनके लिये यह कारण बतलाया है कि जिसप्रकार स्वर्णपाषाणमें सोना रहते हुए भी उसका अलग किया जाना निश्चित नहीं है, उसीप्रकार सिद्धअवस्थाकी योग्यता रखते हुए भी तदनुकूल सामग्रीके नहीं मिलनेसे सिद्ध-पदकी प्राप्ति नहीं होती है। १ गो. जी. ४८९. । किंतु 'णिययपुण्णपावं च ' इत्यत्र णियअपुण्णपुण्णं च 'पाठः । २ गो. जी. ५५८. किंतु 'सिद्धतणस्स' इति स्थाने 'भव्वत्तणस्स ' इति पाठः ।। ३ भण्णइ भव्यो जोग्गो न य जोगत्तेण सिझई सव्वो। जह जोगम्मि वि दलिए सव्वत्थ न करिए पडिमा। जह वा स एव पासाणकणगजोगो विओगजोग्गोऽवि । न वि जुजइ सबोच्चिय स विजुञ्जइ जस्स संपत्ती ।। किं पुण जा संपत्ती सा जोग्गस्सेव न उ अजोग्गस्स । तह जो मोक्खो नियमा सो भव्वाण न इयरेसिं ॥ वि.भा.२३१३,-२३१५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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