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________________ १, १, ४.] संत-पख्वणाणुयोगदारे मग्गणासरूववण्णणं [१४३ विरोधः किन्न भवेदिति चेन्न, तत्र क्षयोपशमस्य प्राधान्यात् । विपर्ययः कथं भूतार्थप्रकाशक इति चेन, चन्द्रमस्युपलभ्यमानद्वित्वस्यान्यत्र सत्वतस्तस्य भूतत्वोपपत्तेः । अथवा सद्भावविनिश्चयोपलम्भकं ज्ञानम् । एतेन संशयविपर्ययानध्यवसायावस्थासु ज्ञानाभावः प्रतिपादितः स्यात्, शुद्धनयविवक्षायां तत्त्वार्थोपलम्भकं ज्ञानम् । ततो मिथ्यादृष्टयो न ज्ञानिन इति सिद्धं द्रव्यगुणपर्यायाननेन जानातीति ज्ञानम् । अभिन्नस्य कथं करणत्वमिति चेन्न, सर्वथा भेदाभेदे च स्वरूपहानिप्रसङ्गादनेकान्ते स्वरूपोपलब्धेर्न तस्य पडुच्च अणादिओ अपज्जवसिदो ' इत्यादि सूत्रके साथ विरोध क्यों नहीं प्राप्त हो जायगा ? अर्थात् कालानुयोगमें ज्ञानका काल एक जीवकी अपेक्षा अनादि-अनन्त आदि आया है । और यहां पर दर्शनोपयोगकी अवस्थामें शानका अभाव बतलाया है, इसलिये यह कथन परस्पर विरुद्ध है। अतः दर्शनोपयोगकी अवस्थामें ज्ञानका अभाव कैसे माना जा सकता है, क्योंकि, इस कथनका कालानुयोगके सूत्रसे विरोध आता है ? समाधान-ऐसी शंका करना ठीक नहीं है, क्योंकि, कालानुयोगमें जो ज्ञानकी अपेक्षा कालका कथन किया है, वहां क्षयोपशमकी प्रधानता है। शंका-विपर्ययज्ञान ( मिथ्याज्ञान ) सत्यार्थका प्रकाशक कैसे हो सकता है ? समाधान-ऐसी शंका ठीक नहीं, क्योंकि, चन्द्रमामें पाये जानेवाले द्वित्वका दूसरे पदार्थों में सत्त्व पाया जाता है, इसलिये उस ज्ञानमें भूतार्थता बन जाती है । ___ अथवा, सद्भाव अर्थात् वस्तु-स्वरूपका निश्चय करानेवाले धर्मको ज्ञान कहते हैं। ज्ञानका इसप्रकारका लक्षण करनेसे संशय, विपर्यय और अनध्यवसायरूप अवस्थामें शानका (सम्यग्ज्ञानका) अभाव प्रतिपादित हो जाता है। कारण कि, शुद्ध-निश्चयनयकी विवक्षामें वस्तु-स्वरूपका उपलम्भ करानेवाले धर्मको ही ज्ञान कहा है । इसलिये मिथ्यादृष्टी जीव ज्ञानी नहीं हो सकते हैं। इसप्रकार जिसके द्वारा द्रव्य, गुण और पर्यायोंको जानते हैं उसे ज्ञान कहते हैं यह बात सिद्ध हो जाती है। शंका-शान तो आत्मासे अभिन्न है, इसलिये वह पदार्थोके जाननेके प्रति साधकतम कारण कैसे हो सकता है ? समाधान-ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि, साधकतम कारणरूप ज्ञानको आत्मासे सर्वथा भिन्न अथवा अभिन्न मान लेने पर आत्माके स्वरूपकी हानिका प्रसंग आता है, और कथंचित् भिन्न अथवा अभिन्नस्वरूप अनेकान्तके मान लेने पर वस्तुस्वरूपकी उपलब्धि होती है। इसलिये आत्मासे कथंचित भेदरूप ज्ञानको जाननेरूप क्रियाके प्रति साधकतम तत्र प्रतिपादितानि च सूत्राणि कालसूत्राणि ज्ञेयानि । प्रकृते च णाणाणुवादेण मदिअण्णाणिसुदअण्णाणीसु मिच्छादिट्ठी ओघं ( कालानु. सू. २६३.) ओघेण मिच्छादिट्ठी केवचिरं कालादो होति ? णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा ( कालानु. सू. २१०.) एगजीव पडुच्च अणादिओ अपज्जवसिदो, अणादिओ सपज्जवसिदो, सादिओ सपज्जवसिदो। (कालानु. सू. ३.) छ. जी. का. सू. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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