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________________ छक्खंडागमे जीवाणं सुह- दुक्ख सुबहु सस्सं कम्म खेत्तं कसेदि जीवस्स । संसार- दूर - मेरं तेण कसायो त्तिणं बेंति' ॥ ९० ॥ भूतार्थप्रकाशकं ज्ञानम् । मिथ्यादृष्टीनां कथं भूतार्थप्रकाशकमिति चेन्न, सम्यङ्मिथ्यादृष्टीनां प्रकाशस्य समानतोपलम्भात् । कथं पुनस्तेऽज्ञानिन इति चेन्न, मिथ्यावोदयात्प्रतिभासितेऽपि वस्तुनि संशयविपर्ययानध्यवसायानिवृत्तितस्तेषामज्ञानितोक्तेः । एवं सति दर्शनावस्थायां ज्ञानाभावः स्यादिति चेन्नैष दोषः, इष्टत्वात् । कालसूत्रेणं सह १४२ ] सुख, दुःख आदि अनेक प्रकारके धान्यको उत्पन्न करनेवाले तथा जिसकी संसाररूप मर्यादा अत्यन्त दूर है ऐसे कर्मरूपी क्षेत्रको जो कर्षण करती हैं उन्हें कषाय कहते हैं ॥ ९० ॥ सत्यार्थका प्रकाश करनेवाली शक्तिविशेषको ज्ञान कहते हैं । शंका- मिथ्याष्टियोंका ज्ञान भूतार्थका प्रकाशक कैसे हो सकता है ? [ १, १, ४ . समाधान ऐसा नहीं है, क्योंकि, सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टियों के प्रकाशमें समानता पाई जाती है। शंका- यदि दोनों के प्रकाशमें समानता पाई जाती है, तो फिर मिध्यादृष्टि जीव अज्ञानी कैसे हो सकते हैं ? समाधान -- यह शंका ठीक नहीं है, क्योंकि, मिथ्यात्वकर्मके उदयसे वस्तुके प्रतिभासित होनेपर भी संशय, विपर्यय और अनध्यवसायकी निवृत्ति नहीं होनेसे मिध्यादृष्टियों को कहा है । शंका- इसतरह मिध्यादृष्टियों को अज्ञानी मानने पर दर्शनोपयोगकी अवस्था में ज्ञानका अभाव प्राप्त हो जायगा ? समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, दर्शनोपयोगकी अवस्था में ज्ञानोपयोगका भाव इष्ट ही है । शंका- यदि ऐसा मान लिया जावे तो इस कथनका कालानुयोगमें आये हुए 'एगजीवं १ गो. जी. २८२. अत्र मिथ्यादर्शनादिजीवसंक्लेश परिणामरूपं बीजं प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशभेद कर्मबन्धनलक्षणे क्षेत्रे उप्त्वा क्रोधादिकषायमामा जीवस्य भृत्यः पुनरपि कालादिसामग्रीलब्धिसमुत्पन्नमुखदुः खलक्षण बहुविधधान्यानि अनाद्यनिधन संसारदूरसीमानि यथा सुफलितानि भवंति तथा उपर्युपरि कृषति इति ' कृषि विलेखने ' इत्यस्य धातोर्विलेखनार्थं गृहीत्वा निरुक्तिपूर्वकं कषायशब्दस्यार्थनिरूपणं आचार्येण कृतमिति । जी. प्र. टी, कप्यतेऽस्मिन् प्राणी पुनः पुनरावृत्तिभावमनुभवति कषोपलकप्यमाणकनकवदिति । कषः संसारः तस्मिन्नासमन्तादयन्ते गच्छन्त्येभिरसुमन्त इति कषायाः । यद्वा कषाया इव कषाया, यथा हि तुबरिकादिकषायकलुषिते वाससि मञ्जिष्ठादिरागः विप्यति चिरं चावतिष्ठिते तथैतत्कलुषिते आत्मनि कर्म संबध्यते चिरं स्थितिकं च जायते, तदायत्वात्तत्स्थितेः । अभि. रा. को. ( कसाय ) २ कालपदेमात्र कालानुयोगद्वारो बोद्धव्यः । तत्र चैकानेकजीवापेक्षया ज्ञानादिमार्गणानां कालः प्रतिपादितः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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