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________________ १, १, ४.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे मग्गणासरूववण्णणं [१४१ देशः स्यादिति चेन्न, अत्रापि रूढिवशाद्वेदनाम्नां कर्मणामुदयस्यैव वेदव्यपदेशात् । अथवात्मप्रवृत्तेमैथुनसम्मोहोत्पादो वेदैः । उक्तं च वेदस्सुदीरणाए बालत्तं पुण णियच्छदे बहुसो। थी-'-णqसए वि य वेए त्ति तओ हवइ वेओ ॥ ८९ ॥ सुखदुःखबहुशस्यकर्मक्षेत्रं कृषन्तीति कषायाः । 'पन्तीति कषायाः' इति किमिति न व्युत्पादितः कषायशब्दश्चेन्न, ततः संशयोत्पत्तेः प्रतिपत्तिगौरवभयाच्च । उक्तं च अथवा, आत्मप्रवृत्ति अर्थात् आत्माकी चैतन्यरूप पर्यायमें सम्मोह अर्थात् राग-द्वेषरूप चित्तविक्षेपके उत्पन्न होनेको मोह कहते हैं। यहांपर मोह शब्द वेदका पर्यायवाची है। शंका- इसप्रकारके लक्षणके करने पर भी संपूर्ण मोहके उदयको वेद संज्ञा प्राप्त हो जावेगी, क्योंकि, वेदकी तरह शेष मोह भी व्यामोहको उत्पन्न करता है ? समाधान-ऐसी शंका नहीं करनी चाहिये, क्योंकि, रूढिके बलसे वेद नामके कर्मके उदयको ही वेद संज्ञा प्राप्त है। __ अथवा, आत्मप्रवृत्ति अर्थात् आत्माकी चैतन्यरूप पर्यायमें मैथुनरूप चित्तविक्षेपके उत्पन्न होनेको वेद कहते हैं। कहा भी है- वेदकर्मकी उदीरणासे यह जीव नाना प्रकारके बालभाव अर्थात् चांचल्यको प्राप्त होता है और स्त्रीभाव, पुरुषभाव तथा नपुंसकभावका वेदन करता है, इसलिये उस वेदकर्मके उदयसे प्राप्त होनेवाले भावको वेद कहते हैं ॥ ८९ ॥ सुख, दुःखरूपी नाना प्रकारके धान्यको उत्पन्न करनेवाले कर्मरूपी क्षेत्रको जो कर्षण करती हैं, अर्थात् फल उत्पन्न करनेके योग्य करती हैं, उन्हें कषाय कहते हैं। शंका-यहां पर कषाय शब्दकी, 'कषन्तति कषायाः' अर्थात् जो कसे उन्हें कषाय कहते हैं, इसप्रकारकी व्युत्पत्ति क्यों नहीं की ? समाधान–'जो कसे उन्हें कषाय कहते हैं ' कषाय शब्दकी इसप्रकारकी व्युत्पत्ति करने पर कषनेवाले किसी भी पदार्थको कषाय माना जायगा। अतः कषार्योंके स्वरूप समझने में संशय उत्पन्न हो सकता है, इसलिये जो कसें उन्हें कषाय कहते हैं इसप्रकारकी व्युत्पत्ति नहीं की गई। तथा, उक्त व्युत्पत्तिसे कषायोंके स्वरूपके समझनेमें कठिनता जायगी, इस भौतिसे भी 'जो कसे उन्हें कषाय कहते हैं' कषाय शब्दकी इसप्रकारकी व्युत्पत्ति नहीं की गई। कहा भी है १पुरिसिच्छिसंढवेदोदयेण पुरिसिच्छिसंढओ भावे । णामोदयेण दवे पाएण समा कहिं विसमा ।। वेदस्सुदीरणाए परिणामस्स य हवेज्ज संमोहो । संमोहेण ण जाणदि जीवो हि गुणं व दोस वा ॥गो. जी. २७१, २७२. २ प्रतिषु ' मेओ' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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