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________________ १४० ] छक्खंडागमे जीवद्वाणं [ १, १, ४. कषायेण व्यभिचारस्तस्य कर्मादान हेतुत्वाभावात् । अथवात्मप्रवृत्तेः कर्मादाननिबन्धनवीर्योत्पादो योगः । अथवात्मप्रदेशानां सङ्कोचविकोचो योगः । उक्तं च मणसा वचसा कारण चावि जुत्तस्स विरिय-परिणामो । जीवस्स प्पणियोओ जोगो त्ति जिणेहि णिद्दिट्ठो' ॥ ८८ ॥ वेद्यत इति वेदः । अष्टकर्मोदयस्य वेदव्यपदेशः प्राप्नोति वेद्यत्वं प्रत्यविशेषादिति चेन, ' सामान्यचोदनाथ विशेषेष्ववतिष्ठन्ते ' इति विशेषावगतेः 'रूढितन्त्रा व्युत्पत्तिः ' इति वा । अथवात्मप्रवृत्तेः सम्मोहोत्पादो वेद: । अत्रापि मोहोदयस्य सकलस्य वेदव्यप आत्मधर्मकी मुख्यता होनेसे यद्यपि संयोगको प्राप्त होनेवाले वस्त्रादिकका निराकरण हो जायगा फिर भी कषायका निराकरण नहीं हो सकता है, क्योंकि, कषाय आत्माका धर्म है और संयोगको भी प्राप्त होता है । इसलिये जो जो संयोगको प्राप्त हो उसे योग कहते हैं यह व्याप्ति कषायमें भी घटित होती है, अतएव कषायके साथ व्यभिचार दोष आ जाता है । ऐसी शंकाको मनमें धारण करके आचार्य कहते हैं कि इसतरह कषायके साथ भी व्यभिचार दोष नहीं आता है, क्योंकि, कषाय कर्मोंके ग्रहण करनेमें कारण नहीं पड़ती है । अथवा, प्रदेशपरिस्पन्दरूप आत्माकी प्रवृत्तिके निमित्तसे कर्मों के ग्रहण करने में कारणभूत वीर्यकी उत्पत्तिको योग कहते हैं । अथवा, आत्माके प्रदेशोंके संकोच और विस्ताररूप होने को योग कहते हैं । . कहा भी है मन, वचन और कायके निमित्तसे होनेवाली क्रियासे युक्त आत्माके जो वीर्यविशेष उत्पन्न होता है उसे योग कहते हैं। अथवा, जीवके प्रणियोग अर्थात् परिस्पन्दरूप क्रियाको योग कहते हैं । ऐसा जिनेन्द्रदेवने कथन किया है ॥ ८८ ॥ जो वेदा जाय, अनुभव किया जाय उसे वेद कहते हैं । शंका - वेदका इसप्रकारका लक्षण करने पर आठ कर्मो के उदयको भी वेद संज्ञा प्राप्त हो जायगी, क्योंकि, वेदनकी अपेक्षा वेद और आठ कर्म दोनों ही समान हैं । जिसतरह वेद वेदनरूप है, उसीतरह ज्ञानावरणादि आठ कमका उदय भी वेदनरूप है ? समाधान - ऐसा नहीं समझना चाहिये, क्योंकि सामान्यरूपसे की गई कोई भी प्ररूपणा अपने विशेषों में पाई जाती है, इसलिये विशेषका ज्ञान हो जाता है । अथवा, रौढ़िक शब्दोंकी व्युत्पत्ति रूढ़िके आधीन होती है, इसलिये वेद शब्द पुरुषवेदादिमें रूढ़ होने के कारण 'वेद्यते ' अर्थात् जो वेदा जाय इस व्युत्पत्तिसे वेदका ही ग्रहण होता है, ज्ञानावरणादि आठ कर्मोके उदयका नहीं | १ पुग्गल विवाइदेहीदएण मणवयणकायजुत्तस्स । जीवस्स जा हु सती कम्मागमकारण जोगो । गो. जी. २१६. माणसा वयसा कारण वावि जुत्तस्स विरियपरिणामो । जीवस्स अप्पणिज्जो स जोगसन्नो जिणक्खाओ || तेओजोगेण जहा रचत्ताई घडस्स परिणामो । जीवकरणप्पओए विरियमवि तहप्पपरिणामो | जोगा विरियं थामो उच्छाह परक्कमो तहा चेट्ठा | सत्ती सामत्थं ति य जोगस्स इवंति पञ्जाया || स्था. सू. पू. १०१. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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