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________________ १, १, ४. ] संत-परूवणाणुयोगद्दारे मग्गणासरूवणणं [ १३९ इति चेन्न, आत्मप्रवृत्त्युपचितकर्मपुद्गलपिण्डस्य तत्र सत्त्वात् । आत्मप्रवृत्त्युपचितनोकर्मपुद्गलपिण्डस्य तत्रासवान तस्य कायव्यपदेश इति चेन्न, तच्चयनहेतुकर्मणस्तत्रास्तित्वतस्तस्य तद्व्यपदेशसिद्धेः । उक्तं च अपप्पवृत्ति - संचिद-पोग्गल -पिंडं वियाण कायो त्ति । सो जिणमदहि भणिओ पुढविक्कायादयो सो दो ॥ ८६ ॥ जह भारवहो पुरिसो वहइ भरं गेण्हिऊण कायोलिं । एमे वह जीवो कम्म-भरं काय कायोलिं ॥ ८७ ॥ युज्यत इति योगः । न युज्यमानपटादिना व्यभिचारस्तस्यानात्मधर्मत्वात् । न समाधान - ऐसा नहीं है, क्योंकि, योगरूप आत्माकी प्रवृत्तिसे संचित हुए कर्मरूप पुद्गल पिण्डका कार्मणकाययोगरूप अवस्थामें सद्भाव पाया जाता है । अर्थात् जिससमय आत्मा कार्मणका योगकी अवस्थामें होता है उस समय उसके ज्ञानावरणादि आठों कर्मोंका सद्भाव रहता ही है, इसलिये इस अपेक्षासे उसके कायपना बन जाता है । शंका - कार्मणकाययोगरूप अवस्थामें योगरूप आत्माकी प्रवृत्तिसे संचयको प्राप्त हुए नोकर्म एलपिण्डका असत्त्व होनेके कारण कार्मणकाययोगमें स्थित जीवके 'काय ' यह व्यपदेश नहीं बन सकता है ? समाधान- -नो कर्म पुद्गलपिण्डके संचयके कारणभूत कर्मका कार्मणकाययोगरूप अवस्था में सद्भाव होनेसे कार्मणकाययोगमें स्थित जीवके 'काय' यह संज्ञा बन जाती है । कहा भी है योगरूप आत्माकी प्रवृत्तिसे संचयको प्राप्त हुए औदारिकादिरूप पुद्गलपिण्डको काय समझना चाहिये । वह काय जिनमतमें पृथिवीकाय आदिके भेदसे छह प्रकारका कहा गया है । और वे पृथिवी आदि छह काय त्रसंकाय और स्थावरकायके भेदसे दो प्रकार के होते हैं ॥ ८६ ॥ जिसप्रकार भारको ढोनेवाला पुरुष कावड़को लेकर भारको ढोता है, उसीप्रकार यह जीव शरीररूपी कावड़को लेकर कर्मरूपी भारको ढोता है ॥ ८७ ॥ जो संयोगको प्राप्त हो उसे योग कहते हैं। यहां पर जो जो संयोगको प्राप्त हो उसे योग कहते हैं ऐसी व्याप्ति करने पर संयोगको प्राप्त होनेवाले वस्त्रादिकसे व्यभिचार हो जायगा । इसप्रकार की शंकाको मनमें निश्चय करके आचार्य कहते हैं कि इसतरह संयोगको प्राप्त होनेवाले वस्त्रादिकसे व्यभिचार दोष भी नहीं आता है, क्योंकि, संयोगको प्राप्त होनेवाले वस्त्रादिक धर्म नहीं हैं । जो जो संयोगको प्राप्त हो उसे योग कहते है इसप्रकार की व्याप्तिमें १ जाई अविणाभावी तसथावरउदयजो हवे काओ । सो जिणमदम्हि भणिओ पुढवीकायादिछन्भेओ ॥ गो. जी. १८१. २ गो. जी. २०२. लोके यथा भारवहः पुरुषः कावटिकं भारं गृहीत्वा विवक्षितस्थानं वहति नयति प्रापयति तथा संसारिजीव: औदारिका दिनो कर्मशरीरक्षिप्तज्ञानावरणादिद्रव्यकर्मभारं गृहीत्वा नानायोनिस्थानानि वहति । जी. प्र. टी. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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