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________________ १४४] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, १, ४. करणत्वविरोध इति । उक्तं च जाणइ तिकाल-सहिए दव्य-गुणे पज्जए य बहु-भेए । पञ्चक्खं च परोक्खं अणेण णाणे त्ति णं बेंति' ॥ ९१ ॥ संयमनं संयमः। न द्रव्ययमः संयमस्तस्य 'सं' शब्देनापादितत्वात् । यमेन समितयः सन्ति, तास्वसतीषु संयमोऽनुपपन्न इति चेन्न, 'स' शब्देनात्मसात्कृताशेषसमितित्वात् । अथवा व्रतसमितिकषायदण्डेन्द्रियाणां धारणानुपालननिग्रहत्यागजयाः संयमः । उक्तं चलेनेमें कोई विरोध नहीं आता है। विशेषार्थ-यदि धर्मको धर्मीसे सर्वथा भिन्न माना जावे तो दोनोंकी स्वतन्त्र सत्ता सिद्ध हो जानेके कारण यह धर्म है और यह धर्मी है अथवा यह धर्म इस धर्मीका है, इसप्रकारका व्यवहार ही नहीं बन सकता है। इसलिये निश्चित धर्मके अभावमें वस्तुके विनाशका प्रसंग आता है। और यदि धर्मको धर्मीसे सर्वथा अभिन्न माना जावे तो धर्म और धर्मी इसप्रकारका भेदरूप व्यवहार नहीं बन सकता है, क्योंकि, सर्वथा अभेद मानने पर इन दोमेसे किसी एकका ही अस्तित्व सिद्ध होगा। उनमेंसे यदि केवल धर्मका ही अस्तित्व मान लिया जावे, तो उसके लिये आधार चाहिये, क्योंकि, कोई भी धर्म आधारके विना नहीं रह सकता है। और यदि केवल धर्मीका अस्तित्व मान लिया जावे तो धर्मके विना उसकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं सिद्ध हो सकती है। इसलिये धर्मको धर्मीसे कथंचित् भिन्न और कथंचित् अभिन्न ही मानना चाहिये । इसतरह अनेकान्तके मानने पर ही धर्म-धर्मी व्यवस्था बन सकती है और धर्म-धर्मी व्यवस्थाके सिद्ध हो जाने पर ज्ञानको साधकतम कारण मानने में किसी भी प्रकारका विरोध नहीं आता है। कहा भी है जिसके द्वारा जीव त्रिकालविषयक समस्त द्रव्य, उनके गुण और उनकी अनेक प्रकारकी पर्यायोंको प्रत्यक्ष और परोक्षरूपसे जाने उसको ज्ञान कहते हैं ॥९१ ॥ संयमन करनेको संयम कहते हैं। संयमका इसप्रकारका लक्षण करने पर द्रव्य-यम अर्थात् भावचारित्रशून्य द्रव्यचारित्र संयम नहीं हो सकता है, क्योंकि, संयम शब्दमें ग्रहण किये गये संशब्दसे उसका निराकरण कर दिया है। शंका-यहां पर यमसे समितियोंका ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि, समितियोंके नहीं होने पर संयम नहीं बन सकता है ? समाधान-ऐसी शंका ठीक नहीं है, क्योंकि, संयममें दिये गये 'सं' शब्दसे संपूर्ण समितियोंका ग्रहण हो जाता है। अथवा, पांच व्रतोंका धारण करना, पांच समितियोंका पालन करना, क्रोधादि कषायोंका निग्रह करना, मन, वचन और कायरूप तीन दण्डोंका त्याग करना और पांच इन्द्रियोंके विषयोंका जीतना संयम है । कहा भी है १ गो. जी. २९९. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org www.ja
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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