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________________ ११६] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [ १, १, २. क्रमेणादिष्टः स्यादस्ति च नास्ति चावक्तव्यश्च जीव इति । एवमजीवादयोऽपि वक्तव्याः । णाणपवादं णाम पुव्वं बारसण्हं वत्थूणं १२ वि-सद-चालसि-पाहुडाणं २४० एगूणकोडि-पदेहि ९९९९९९९ पंच णाणाणि तिण्णि अण्णाणाणि वण्णेदि। दव्यट्ठिय-पज्जवहिय-णयं पडुच्च अणादिअणिहण-अणादिसणिहण-सादिअणिहण-सादिसणिहणाणि वण्णेदि, णाणं णाणसरूवं च वण्णेदि । ___ सच्चपवादं पुव्वं बारसण्हं वत्थूणं १२ दु-सय-चालीस-पाहुडाणं २४. छ. अहिय-एग-कोडि-पदेहि १००००००६ वाग्गुप्ति वाक्संस्कारकारणं प्रयोगो द्वादशधा भाषा वक्तारश्च अनेकप्रकारं मृषाभिधानं दशप्रकारश्च सत्यसद्भावो यत्र निरूपितस्तत्सत्यप्रवादम् । व्यलीकनिवृत्तिर्वाचां संयमत्वं वा वाग्गुप्तिः । वाक्संस्कारकारणानि शिरःकण्ठादीन्यष्टौ स्थानानि । वाक्प्रयोगः शुभेतरलक्षणः सुगमः । अभ्याख्यानकलहपैशुन्याबद्धप्रलापरत्यरत्युपधिनिकृत्यप्रणतिमोषसम्यग्मिथ्यादर्शनात्मिका भाषा द्वादशवा । अयमस्य कर्तेति अनिष्टकथनमभ्याख्यानम् । कलहः प्रतीतः । पृष्ठतो दोपाविष्करणं धर्म, स्यान्नास्तिरूप द्वितीय धर्म और स्यादवक्तव्यरूप तृतीय धर्मसे जिससमय क्रमसे विवक्षित होता है उससमय कथंचित् अस्ति-नास्ति-अवक्तव्यरूप जीव है। इसीतरह अजीवादिकका भी कथन करना चाहिये। ज्ञानप्रवादपूर्व बारह वस्तुगत दोसौ चालीस प्राभृतोंके एककम एक करोड़ पदोंद्वारा पांच ज्ञान और तीन अज्ञानोंका वर्णन करता है। तथा द्रव्यार्थिकनय और पर्यायार्थिकनयकी अपेक्षा अनादि-अनन्त, अनादि-सान्त, सादि-अनन्त और सादि-सान्तरूप विकल्पोंका तथा इसीतरह ज्ञान और ज्ञानके स्वरूपका वर्णन करता है। सत्यप्रवादपर्व बारह वस्तुगत दोसौ चालीस प्राभृतोंके एक करोड़ छह पदोंद्वारा वचनगुप्ति, वाक्संस्कारके कारण, वचनप्रयोग, बारह प्रकारको भाषा, अनेक प्रकारके वक्ता, अनेक प्रकारके असत्यवचन और दश प्रकारके सत्यवचन इन सबका वर्णन करता है। असत्य नहीं बोलनेको अथवा वचनसंयम अर्थात् मौनके धारण करनेको वचनगुप्ति कहते हैं । मस्तक, कण्ठ, हृदय, जिह्वाका मूल, दांत, नासिका, तालु और ओठ ये आठ वचनसंस्कारके कारण हैं। शुभ और अशुभ लक्षणरूप वचनप्रयोगका स्वरूप सरल है । अभ्याख्यानव वन, कलहवचन, पैशून्यवचन, अबद्धप्रलापवचन, रतिवचन, अरतिवचन, उपधिवचन, निकृतिवचन, अप्रणतिवचन, मोषवचन, सम्यग्दर्शनवचन और मिथ्यादर्शनवचनके भेदसे भाषा बारह प्रकारकी है। यह इसका कर्ता है इसतरह अनिष्ट कथन करनेको अभ्याख्यानभाषा कहते हैं। कलहका अर्थ स्पष्ट ही है । (परस्पर विरोधके १ ज्ञानानां प्रवादः प्ररूपणमस्मिन्निति ज्ञानप्रवादम् । तच मतिश्रुतावधिमनःपर्ययकेवलानि पंच सम्यग्ज्ञानानि । कुमतिकुश्रुतविभंगाख्यानि त्रीण्यज्ञानानि स्वरूपसंख्याविषयफलानि आश्रित्य तेषां प्रामाण्याप्रामाण्य. विभागं च वर्णयति । गो. जी., जी. प्र., टी. ३६६. २ इत आरभ्य सत्यप्रवादवर्णनान्तं यावत् समग्रपाठोऽविकलरूपेण तत्वार्थराजवार्तिके पू. ५२ पनि ८तः आरभ्य २८ तमपंक्तिपर्यन्तः शब्दश उपलभ्यते । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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