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________________ १, १, २. ] संत-परूपणाणुयोगद्दारे सुत्तावयरणं [ ११७ पैशुन्यम् । धर्मार्थकाममोक्षासम्बद्धा वागबद्धप्रलापः । शब्दादिविषयेषु रत्युत्पादिका रतिवाक् । तेष्वेवारत्युत्पादिकारतिवाक् । यां वाचं श्रुत्वा परिग्रहार्जनरक्षणादिष्वासज्यते सोपधिवाक् । वणिग्व्यवहारे यामवधार्य निकृतिप्रवणः आत्मा भवति स निकृतिवाक् । यां श्रुत्वा तपोविज्ञानाभ्यां केष्वपि न प्रणमति साप्रणतिवाक् । यां श्रुत्वा स्तेये प्रवर्तते सामोषवाक् । सम्यग्मार्गोपदेष्ट्री सम्यग्दर्शनवाक् । तद्विपरीता मिथ्यादर्शनवाक् । वक्तारश्चाविष्कृतवक्तृपर्यायाः द्वीन्द्रियादयः । द्रव्यक्षेत्रकालभावाश्रयमनेकप्रकारमनृतम् । दशविधः सत्यसद्भावः नाम-रूप-स्थापना- प्रतीत्य- संवृति-संयोजना - जनपद- देश-भाव-समयसत्यभेदेन । तंत्र सचेतनेतरद्रव्यस्यासत्यप्यर्थे संव्यवहारार्थ संज्ञाकरणं तन्नामसत्यम्, यथेन्द्र इत्यादि । यदर्थासन्निधानेऽपि रूपमात्रेणोच्यते तद्रूपसत्यम्, यथा चित्र पुरुषादिध्वसत्यपि चैतन्योपयोगादावर्थपुरुष इत्यादि । असत्यप्यर्थे यत्कार्यार्थं स्थापितं द्यूताक्षा बढ़ानेवाले वचनों को कलहवचन कहते हैं ।) पीछेसे दोष प्रगट करनेको पैशून्यवचन कहते हैं । धर्म, अर्थ, काम और मोक्षके संबन्ध से रहित वचनोंको अबद्धप्रलापवचन कहते हैं । इन्द्रियों के शब्दादि विषयों में राग उत्पन्न करनेवाले वचनों को रतिवचन कहते हैं । इन्द्रियोंके शब्दादि विषयों में अरतिको उत्पन्न करनेवाले वचनोंको अरतिवचन कहते हैं । जिस वचनको सुनकर परिग्रहके अर्जन और रक्षण करनेमें आसक्ति उत्पन्न होती है उसे उपधिवचन कहते हैं। जिस वचनको अवधारण करके जीव वाणिज्यमें ठगने रूप प्रवृत्ति करने में समर्थ होता है उसे निकृतिवचन कहते हैं । जिस कचनको सुनकर तप और ज्ञानसे अधिक गुणवाले पुरुषों में भी जीव नम्रीभूत नहीं होता है उसे अप्रणतिवचन कहते हैं । जिस वचनको सुनकर चौर्यकर्म में प्रवृत्ति होती है उसे वचन कहते हैं । समीचीन मार्गका उपदेश देनेवाले वचनको सम्यग्दर्शनवचन कहते हैं । मिथ्यामार्गका उपदेश देनेवाले वचनको मिथ्यादर्शन वचन कहते हैं । जिनमें वक्तृपर्याय प्रगट हो गई है ऐसे द्वीन्द्रियसे आदि लेकर सभी जीव वक्ता हैं। द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षा असत्य अनेक प्रकारका है । नामसत्य, रूपसत्य, स्थापनासत्य, प्रतीत्यसत्य, संवृतिसत्य, संयोजनासत्य, जनपदसत्य, देशसत्य भावसत्य और समय सत्य के भेदसे सत्यवचन दश प्रकारका है। मूल पदार्थके नहीं रहने पर भी सचेतन और अचेतन द्रव्यके व्यवहार के लिये जो संज्ञा की जाती है उसे नामसत्य कहते हैं । जैसे, ऐश्वर्यादि गुणों के न होने पर भी किसीका नाम 'इन्द्र' ऐसा रखना नामसत्य है । पदार्थके नहीं होने पर भी रूपकी मुख्यता से जो वचन कहे जाते हैं उसे रूपसत्य कहते हैं । जैसे, चित्रलिखित पुरुष आदिमें चैतन्य और उपयोगादिक नहीं रहने पर भी ' अर्थपुरुष ' इत्यादि कहना रूपसत्य है । मूल पदार्थके नहीं रहने पर भी कार्य के लिये जो द्यूतसंबन्धी अक्ष (पांसा) आदिमें स्थापना की जाती है उसे स्थापनासत्य Jain Education International १ तपोविज्ञानाधिकेष्वपि ' इति पाठः । त. रा. वा. पू. ५२. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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