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________________ १, १, २.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे सुत्तावयरणं [१०१ समवायो णाम अंगं चउसहि-सहस्सब्भहिय-एग-लक्ख-पदेहि १६४००० सव्वपयत्थाणं समवायं वण्णेदि । सो वि समवायो चउब्धिहो, दव्य-खेत्त-काल-भावसमवायो चेदि । तत्थ दव्यसमवायो धम्मत्थिय-अधम्मत्थिय-लोगागास-एगजीवपदेसा च समा । खेत्तदो सीमंतणिरय-माणुसखेत्त-उडुविमाण-सिद्धिखेत्तं च समा । कालदो समयो समएण मुहुत्तो मुहुत्तेण समो । भावदो केवलणाणं केवलदसणेण समं णेयप्पमाणं णाणमेत्त-चेयणोवलंभादो । वियाहपण्ण ती णाम अंगं दोहि लक्खेहि अट्ठावीस-सहस्सेहि पदेहि २२८००० किमत्थि जीवो, किं णत्थि जीवो, इच्चेवमाइयाई सहि-बायरण-सहस्साणि परूवेदि। णाहधम्मकहा णाम अंगं पंच-लक्ख-छप्पण्ण सहस्स-पदेहि ५५६००० . समवाय नामका अंग एक लाख चौसठ हजार पदोंके द्वारा संपूर्ण पदार्थोके समवायका वर्णन करता है, अर्थात् सादृश्यसामाज्यसे द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षा जीवादि पदार्थों का ज्ञान कराता है। वह समवाय चार प्रकारका है, द्रव्यसमवाय, क्षेत्रसमवाय, कालसमवाय और भावसमवाय । उनमेंसे, द्रव्यसमवायकी अपेक्षा धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, लोकाकाश और एक जीवके प्रदेश समान हैं। क्षेत्रसमवायकी अपेक्षा प्रथमनरकके प्रथम पटलका सीमन्तक नामका इन्द्रक बिल, ढाई द्वीपप्रमाण मनुष्यक्षेत्र, प्रथगस्वर्गके प्रथम पटलका ऋजु नामका इन्द्रक विमान और सिद्धक्षेत्र समान हैं। कालकी अपेक्षा एक समय एक समयके बराबर है भौर एक मुहूर्त एक मुहूर्त के बराबर है। भावकी अपेक्षा केवलज्ञान केवलदर्शनके समान शेयप्रमाण है, क्योंकि, ज्ञानप्रमाण ही चेतनाशक्तिकी उपलब्धि होती है। व्याख्याप्रज्ञप्ति नामका अंग दो लाख अट्ठाईस हजार पदोंद्वारा क्या जीव है ? क्या जीव नहीं है ? इत्यादिक रूपसे साठ हजार प्रश्नोंका व्याख्यान करता है। नाथधर्मकथा अथवा शातृधर्मकथा नामका अंग पांच लाख छप्पन हजार पदोंद्वारा सूत्रपौरुषी अर्थात् सिद्धान्तोक्त विधिसे ...................... १ समवाएणं एकाइयाणं एगट्ठाणं एगुत्तरियपरिट्ठीए दुवालसंगस्स य गणिपिडगरस पल्लवग्गे समणुगाइज्जइ, ठाणगसयस बारस विह वित्थरस्स सुयणाणस्स जगजीवहियस्स भगवओ समासेणं समोयारे आहिज्जति । तत्थ य णाणाविहप्पगारा जीवाजीवा य वणिया वित्थरेण अवरे वि अ बहुविहा विसेसा नैरंग-तिरिय-मणुअ-सुरगणाणं आहारुस्सासलेसाआवाससंखआययप्पमाणउववायचवणउग्गहणोवहिवेयणविहाणउवओगजोगइंखियकसाय विविहा य . जीवजोणी विक्खंभुस्सेहपरिरयप्पमाणं विहिविसेसा य मंदरादीणं महीधराणं कुलगरतित्थगरगणहराणं सम्मत्तभरहाहिवाण चकीणं चेव चक्कहरहलहराण य वासाण य णिग्गमा य समाए एए अण्णे य एबमाइ एम वित्थरेणं अस्था समाहिज्जति xx सम. सू, १३९. २ वियाहेणं नाणाविहसुरनरिंदरायरिसिविविहसंसइअपुच्छियाणं जिणेणं वित्थरेणं भासियाणं दध्वगुणखेत्तकाल. पज्जवपदेसपरिणामजहच्छिवियभावअणुगमणिक्खेवणयप्पमाणसुनिउणोवक्कमविविहप्पकारपगडपयासियाणं xxx छत्तीस सहस्समणूणयाणं वागरणाणं वंसणाओxxx पण्णविन्जति । सम. सू. १४.. ३ नाथः त्रिलोकेश्वराणां स्वामी तीर्थंकरपरमभट्टारकः तस्य धर्मकथा जीवाविवस्तुस्वभावकथनं, घातिकर्मक्षया. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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