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१००] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १, २. ठाणं णाम अंग वायालीस-पद-सहस्सेहि ४२००० एगादि-एगुत्तर-ट्ठाणाणि वण्णेदि। तस्सोदाहरणं
एको चेत्र महप्पो सो दुवियप्पो ति-लक्खणो भणिओ । चदु-संकमणा-जुत्तो पंचग्ग-गुण-प्पहाणो य ॥ ७२ ॥ छक्कावक्कम-जुत्तो कमसो सो सत्त-भंगि-सम्भावो । अट्ठासवो णवठ्ठो जीवो दस-ठाणियो भणियो ॥ ७३ ॥
करता है । स्थानांग ब्यालीस हजार पदोंके द्वारा एकको आदि लेकर उत्तरोत्तर एक एक अधिक स्थानोंका वर्णन करता है । उसका उदाहरण
महात्मा अर्थात् यह जीव द्रव्य निरन्तर चैतन्यरूप धर्मसे उपयुक्त होनेके कारण उसकी अपेक्षा एक ही है । ज्ञान और दर्शनके भेदसे दो प्रकारका है। कर्मफलचेतना, कर्मचेतना और ज्ञानचेतनासे लक्ष्यमान होनेके कारण तीन भेदरूप है । अथवा उत्पाद, व्यय और धौव्यके भेदसे तीन भेदरूप है। चार गतियों में परिभ्रमण करनेकी अपेक्षा इसके चार भेद हैं। औदयिक आदि पांच प्रधान गुणोंसे युक्त होनेके कारण इसके पांच भेद हैं। भवान्तरमें संक्रमणके समय पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ऊपर और नीचे इसतरह छह संक्रमलक्षण अपक्रमोंसे युक्त होनेकी अपेक्षा छह प्रकारका है। अस्ति, नास्ति इत्यादि सात भंगोंसे युक्त होनेकी अपेक्षा सात प्रकारका है। ज्ञानावरणादि आठ प्रकारके कमौके आश्रवसे युक्त होनेकी अपेक्षा आठ प्रकारका है । अथवा ज्ञानावरणादि आठ कमौका तथा आठ गुणोंका आश्रय होनेकी अपेक्षा आठ प्रकारका है। जीवादि नौ प्रकारके पदार्थोको विषय करनेवाला, अथवा जीवादि नौ प्रकारके पदार्थोरूप परिणमन करनेवाला, होनेकी अपेक्षा नौ प्रकारका है। पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, प्रत्येकवनस्पतिकायिक, साधारणवनस्पतिकायिक, द्वीन्द्रियजाति, श्रीन्द्रियजाति, चतुरिन्द्रियजाति और पंचेन्द्रियजातिके भेदसे दश स्थानगत होनेकी अपेक्षा दश प्रकारका कहा गया है ॥ ७२-७३॥
१ ठाणे णं दव्य-गुण-खेत-काल-पन्जव-पयत्थाणं xx एकविहवत्तव्वयं दुविह जाव वसविहवत्तध्वयं जीवाण पोग्गलाण य लोगट्ठाई च णं परूवणया आपविजंति xx | सम. सू. १३८.
__२ पञ्चा. ७१, ७२. संग्रहनयेन एक एवात्मा । व्यवहारनयेन संसारी मुक्तश्रेति द्विविकल्पः । उत्पादव्ययभौव्ययुक्त इति त्रिलक्षणः । कर्मवशात् चतुर्गतिषु संक्रामाति चतुःसंक्रमणयुक्तः । औपशमिकक्षायिकक्षायोपशमिको. दयिकपारिणामिकभेदेन पंचविशिष्टधर्मप्रधानः। पूर्वदक्षिणपश्चिमोत्तरोर्धाधोगतिभेदेन संसारावस्थायां षटोपक्रमयुनः । स्यादस्ति स्यानास्ति xx इत्यादिसप्तमंगीसद्भावेऽप्युपयुक्तः । अष्ट विधकर्मासवयुक्तत्वादष्टास्रवः । नवजीवाजीवासवबंधसंवरनिर्जरामोक्षपुण्यपापरूपा अर्थाः पदार्थाः विषयाः यस्य स नवार्थः । पृथिव्यप्तेजोवायुप्रत्येकसाधारणद्वित्रिचतु:पंचेन्द्रियभेदाद् दशस्थानकः । गो. जी., जी. प्र., टी. ३५६.
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