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१, १, २.] संत-परूपणाणुयोगद्दारे सुत्तावयरणं
[९९ अंगपविट्ठस्स अत्याधियारो बारसविहो । तं जहा, आयारो सूदयदं ठाणं समवायो वियाहपण्णत्ती णाहधम्मकहा उवासयज्झयगं अंतयडदसा अणुत्तरोववादियदसा पण्हवायरणं विवागसुत्तं दिहिवादो चेदि । एत्थायारंगमट्ठारह-पद-सहस्सेहि १८०००
कथं चरे कथं चिट्ठे कधमासे कधं सए । कधं भुजेज भासेज कधं पावं ण बज्झई ॥ ७० ॥ जदं चरे जदं चिढे जदमासे जदं सए ।
जद मुंजेज भासेज एवं पावं ण बज्झई' ॥ ७१ ॥ एवमादियं मुणीणमायारं वण्णेदि ।
सूदयदं णाम 'अंगं छत्तीस-पय-सहस्सेहि ३६००० णाणविणय-पण्णावणाकप्पाकप्प-च्छेदोवडावण-ववहारधम्मकिरियाओ परूवेइ ससमय-परसमय-सरूवं च परूवेई।
अंगप्रविष्टके अधिकार बारह प्रकारके हैं। वे ये हैं, आचार, सूत्रकृत, स्थान, समवाय, व्याख्याप्रज्ञप्ति, नाथधर्मकथा, उपासकाध्ययन, अंतःकृद्दशा, अनुत्तरोपपदिकदशा, प्रश्नव्याकरण, विपाकसूत्र और दृष्टिवाद । इनमेंसे, आचारांग अठारह हजार पदोंके द्वारा
किसप्रकार चलना चाहिये? किसप्रकार खड़े रहना चाहिये ? किसप्रकार बैठना चाहिये ? किसप्रकार शयन करना चाहिये ? किस प्रकार भोजन करना चाहिये ? किसप्रकार संभाषण करना चाहिये और किसप्रकार पापकर्म नहीं बंधता है ? (इसतरह गणधरके प्रश्नोंके अनुसार) यत्नसे चलना चाहिये, यत्नपूर्वक खड़े रहना चाहिये, यनसे बैठना चाहिये, यत्नपूर्वक शयन करना चाहिये, यत्नपूर्वक भोजन करना चाहिये, यत्नसे संभाषण करना चाहिये । इसप्रकार आचरण करनेसे पापकर्मका बंध नहीं होता है ॥ ७०-७१ ॥ इत्यादि रूपसे मुनियोंके आचारका वर्णन करता है।
सूत्रकृतांग छत्तीस हजार पदोंके द्वारा ज्ञानविनय, प्रज्ञापना, कल्प्याकल्प्य, छेदोपस्थापना और व्यवहारधर्मक्रियाका प्ररूपण करता है । तथा यह स्वसमय और परसमयका भी निरूपण
१ मूलाचा. १०१२, १० १३. दशवै. ४. ७, ८.
२ आयारे णे समणाणं आयार गोयर-विणय-वेण इय-ट्टाग-गमण-चंकमण-पमाण-जोग-जुंजण-भासा-समितिगुत्ती-सेजोवहि-भत्त-पाण-उग्गम उपायण-एसणा-विसोहि-सुद्धासुद्धग्गहण-वय णियम-तत्रोवहाण-सुप्पसत्यमाहिज्जइ । सम. सू. १३६.
३ सुअंगडे * ससमया सूइज्जति, परसमया सूइज्जति, ससमयपरसमया सूइज्जति xxसूअगडे गं जीवाजीव-पुण्ण-पापासव-सेवर-णिज्जरण-बंध-मोक्खावसाणा पयत्था सूइज्जति समणाणं अचिरकाल-पबयाणं कुसमयमोह-मोहमद-मोहियाणं संदेह-जाय-सहजबुद्धि-परिणाम-संमइयाण पावकरमालेन-मइ-गुण-विसोहणत्थं असीअस्स किरियावाइयसयस्स चउरासीए अकिरियावाईणं सत्तट्ठीए अण्णाणियवाईणं बत्तीसाए वेणइयवाईणं तिण्हं तेवढीणं अण्ण. दिट्टियसयार्ण बह किचा ससमए ठाविज्जति xxx | सम. सू. १३७.
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