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________________ ८८] छक्खंडागमे जीवाणं [१, १, १. पञ्चतारका इति । बहुत्वे एकत्वं आम्राः वनमिति । बहुत्वे द्वित्वं देवमनुष्या उभौ राशी इति । कालव्यभिचारः, विश्वदृश्वास्य पुत्रो जनिता, मविष्यदर्थे भूतप्रयोगः । भावि कृत्यमासीदिति भूते भविष्यत्प्रयोग इत्यर्थः । साधनव्यभिचारः, ग्राममधिशेते इति । पुरुषव्यमिचार', एहि मन्ये रथेन यास्यसि न हि यास्यसि यातस्ते पितेति । उपग्रह 'गोदौ ग्रामः' गायोंको देनेवाले गांव हैं। यहां पर गोद शब्द द्विवचनान्त और ग्राम शब्द एकवचनान्त है । इसलिये द्विवचनके स्थानपर एकवचनका कथन करनेसे संख्याव्यभिचार है। 'पुनर्वसू पश्च तारकाः ' पुनर्वसू पांच तारे हैं। यहां पर पुनर्वसू द्विवचनान्त और पंचतारका शब्द बहुवचनान्त है । इसलिये द्विवचनके स्थानपर बहुववनका कथन करनेसे संख्याव्यभिचार है। 'आम्राः वनम् ' आमोंके वृक्ष वन हैं। यहां पर आम्र शब्द बहुवचनान्त और वन शब्द एकवचनान्त है। इसलिये बहुवचनके स्थानपर एकवचनका कथन करनेसे संख्याव्यभिचार है। 'देवमनुष्या उभौ राशी' देव और मनुष्य ये दो राशि हैं। यहां पर देव-मनुष्य शब्द बहुवचनान्त और राशि शब्द द्विवचनान्त है। इसलिये बहुवचनके स्थानपर द्विवचनका कथन करनेसे संख्याव्यभिचार है। भविष्यत् आदि कालके स्थानपर भूत आदि कालका प्रयोग करना कालव्यभिचार है। जैसे, 'विश्वदृश्वास्य पुत्रो जनिता' जिसने समस्त विश्वको देख लिया है ऐसा इसके पुत्र होगा। यहां पर विश्वका देखना भविष्यत् कालका कार्य है, परंतु उसका भूतकालके प्रयोगद्वारा कथन किया गया है। इसलिये यहां पर भविष्यत् कालका कार्य भूतकालमें कहनेसे कालव्याभिचार है। इसीतरह ‘भाविकृत्यमासीत् ' आगे होनेवाला कार्य हो चुका । यहां पर भी भूतकालके स्थानपर भविष्यत् कालका कथन करनेसे कालव्यभिचार है। एक साधन अर्थात् एक कारकके स्थानपर दूसरे कारकके प्रयोग करनेको साधनव्यभिचार कहते हैं। जैसे, 'ग्राममधिशेते' वह ग्राममें शयन करता है। यहां पर सप्तमी कारकके स्थानपर द्वितीया कारकका प्रयोग किया गया है, इसलिये यह साधनव्यभिचार है। उत्तम पुरुषके स्थानपर मध्यम पुरुष और मध्यम पुरुषके स्थानपर उत्तम पुरुष आदिके १ ये हि वैयाकरणव्यवहारनयानुरोधेन 'धातुसम्बन्धे प्रत्ययाः' इति सूत्रमारभ्य विश्वदृश्वाऽस्य पुत्री 'जनिता, भाविकृत्यमासीदित्यत्र कालभेदेऽप्येकपदार्थमाहता यो विश्वं दक्ष्यति सोऽपि पुत्रो जनितेति भविष्यत्कालेनातोतकालस्याभेदोऽभिमतः, तथा व्यवहारदर्शनादिति । तत्र यः परीक्षायाः मूलझतेः कालभेदेऽप्यर्थस्याभेदेऽतिप्रसंगान रावणशंखचक्रवर्तिनोरप्यतीतानागतकालयोरेकत्वापत्तेः । आसीद्रावणो राजा, शंखचक्रवर्ती भविष्यतीति शब्दयोभिन्नविषयत्वात् नैकार्थतेति चेत्, विश्वदृश्वा जनितेत्यनयोरपि माभूत् तत एव । न हि विश्वं दृष्टवान् इति विश्वदृशि वेतिशब्दस्य योऽथोंऽतीतकालस्य जनितेति शब्दस्यानागतकालः पुत्रस्य भाविनोऽतीतत्वविरोधात् । अतीतकालस्याप्यनागतत्वाव्यपरोपादेकार्थतामिप्रेतति चेत् तर्हि न परमार्थतःकालभेदेऽप्यभिन्नार्थव्यवस्था । त. श्लो. वा. पृ. २७२-२७३. २ एहि मन्ये रथेन यास्यास, न हि यास्यसि, स यातस्ते पिता' इति साधनभेदेपि पदार्थमभिन्नमादृताः "प्रहासे मन्य वावि युष्मन्मन्यते रस्मदेकवच " इति वचनात् । तदपि न श्रेयः परीक्षायां, अहं पचामि, वं पचसी. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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