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________________ १, १, १.] संत-परूवणाणुयोगदारे सुत्तावयरणं [७७ विवक्षितवृक्षेषु विवक्षाकृतप्राधान्यचूतपिचुमन्दनिबन्धनत्वात् । नामपदं नाम गौडोऽन्ध्रो द्रमिल इति गौडान्ध्रद्रमिलभाषानामधामत्वात् । प्रमाणपदानि शतं सहसं द्रोणः खारी पलं तुला कर्षादीनि प्रमाणनाम्नां प्रमेयेषूपलम्भात् ।। अवयवपदानि यथा । सोऽवयवो द्विविधः, उपचितोऽपचित इति । तत्रोपचितावयवनिबन्धनानि यथा, गलगण्डः शिलीपदः लम्बकर्ण इत्यादीनि नामानि । अवयवापचयनिबन्धनानि यथा, छिन्नकर्णः छिन्ननासिक इत्यादीनि नामानि । संयोगपदानि यथा। स संयोगश्चतुर्विधो द्रव्यक्षेत्रकालभावसंयोगमेदात् । द्रव्यसंयोगपदानि यथा, इभ्यः गौथः दण्डी छत्री गर्भिणी इत्यादीनि द्रव्यसंयोगनिबन्धनत्वात् तेषां । इत्यादि । वनमें अन्य अविवक्षित वृक्षोंके रहने पर भी विवक्षासे प्रधानताको प्राप्त आम और नीमके वृक्षों के कारण आम्रवन और निम्बवन आदि नाम व्यवहारमें आते हैं। जो भाषाभेदसे नाम बोले जाते हैं उन्हें नामपदनाम कहते हैं। जैसे गौड़, आन्ध्र, द्रमिल इत्यादि । ये गौड़ आदि नाम गौड़ी, आन्ध्री और द्रमिल भाषाओंके नाम के आधारसे हैं। गणना अथवा मापकी अपेक्षासे जो संज्ञाएं प्रचलित हैं उन्हें प्रमाणपदनाम कहते हैं। जैसे, सौ, हजार, द्रोण, खारी, पल, तुला, कर्ष इत्यादि । ये सब प्रमाणनाम प्रमेयोंमें पाये जाते हैं, अर्थात् इन नामों के द्वारा तत्प्रमाण वस्तुका बोध होता है। अब अवयवपदनाम कहते हैं । अवयव दो प्रकारके होते हैं, उपचितावयव भौर भपचितावयव । रोगादिके निमित्त मिलने पर किसी अवयवके बढ़ जानेसे जो नाम बोले आते हैं उन्हें उपचितावयवपदनाम कहते हैं। जैसे, गलगंड, शिलीपद, लम्बकर्ण इत्यादि । जो नाम अवयवोंके अपचय अर्थात् उनके छिन्न हो जानेके निमित्तसे व्यवहारमें आते हैं उन्हें अपचितावयवपदनाम कहते हैं । जैसे, छिन्नकर्ण, छिन्ननासिक इत्यादि नाम । अब संयोगयदनामका कथन करते हैं। द्रव्यसंयोग, क्षेत्रसंयोग, कालसंयोग और भावसंयोग के भेदसे संयोग चार प्रकरका है। इभ्य, गौथ, दण्डी, छत्री, गर्भिणी इत्यादि द्रव्यसंयोगपदनाम हैं, क्योंकि, धन, गूथ, दण्डा, छत्ता इत्यादि द्रव्यके संयोगसे ये नाम व्यवहारमें १ मामेणे पिउपिआमहस्स नामेणं उन्नामिज्जइ से तंणामेण । अनु.१, १२८. २ पमाणेणं च उब्चिहे पपणत्ते । तं जहा, नामपमाणे ठवणप्पमाणे हव्वपमाणे भावपमाण। अनु. १, १३३. ६ अवयवेणं, सिंगी सिही विसाणी दाढी पक्खी खरी मही वाली। दुपैय बउप्पय बहुपय लंगूली केसरी कउही परियर-बधेण भडं जाणिज्जा महिलिअं निवसणेणं सित्थेण दोणवायं कविंच एक्काए गाहाए । से तं अबयवणं । अनु. १, १२८. से कि त संजीएणं ? संजोगे चउबिहे पणते, ते जहां, दव्वसंजोगे, खेत्तसंजोग, कालसंजोगे, भावसंजोगे। से किं तं दव्वसंजोगे ? दव्वसंजोगे तिविहे पण्णत्ते, सं जहा, सचित्ते अचित्ते, मीसए। से किं तं सचित्ते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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