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________________ ७६] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [ १, १, १. गमात् । एवमविधवेत्यपि चालयित्वा व्यवस्थापनीयम्। अक्लिष्टानि कानि पुनरादानपदनामानि? वधून्तर्वत्नीत्यादीनि आत्तभर्तृधृतापत्यनिवन्धनत्वात् । प्रतिपक्षपदानि कुमारी बन्ध्येत्येवमादीनि आदानपदप्रतिपक्षनिबन्धनत्वात् । अनादिसिद्धान्तपदानि धर्मास्तिरधर्मास्तिरित्येवमादीनि । अपौरुषेयत्वतोऽनादिः सिद्धान्तः स पदं स्थानं यस्य तदनादिसिद्धान्तपदम् । प्राधान्यपदानि आम्रवनं निम्बवनमित्यादीनि। वनान्तः सत्स्वप्यन्येष्व विशेषार्थ-जलादि द्रव्य आदान है और कलश आदेय है। इसलिये 'पूर्णकलश' इस शब्दका आदानपदनाममें अन्तर्भाव होता है । यह बात गौण्यपदनाममें नहीं है, इसलिये उसमें उसका अन्तर्भाव नहीं हो सकता है। यदि गौण्यपदमें इसप्रकारकी विवक्षा की जायगी तो वह गौप्यपद न कहलाकर आदानपदकी कोटिमें आ जायगा। इसीप्रकार 'अविधवा' इस पदका भी विचार कर आदानपदनाममें अन्तर्भाव कर लेना चाहिये। शंका-अक्लिष्ट अर्थात् सरल आदानपदनाम कौनसे हैं ? समाधान-वधू और अन्तर्वती इत्यादि सरल आदानपदनाम समझना चाहिये, क्योंकि, स्वीकृत पतिकी अपेक्षा वधू और धारण किये गये गर्भस्थ पुत्रकी अपेक्षा ' अन्तर्वनी' संज्ञा प्रचलित है। कुमारी, बन्ध्या इत्यादिक प्रतिपक्षपदनाम हैं, क्योंकि, आदानपदोंमें ग्रहण किये गये दूसरे द्रव्यकी निमित्तता कारण पड़ती है और यहां पर अन्य द्रव्यका अभाव कारण पड़ता है। इसलिये आदानपदनामों के प्रतिपक्ष-कारणक होनेसे कुमारी या बन्ध्या इत्यादि पद प्रतिपक्षपदनाम जानना चाहिये। ___अनादिकालसे प्रवाहरूपसे चले आये सिद्धान्तवाचक पदोंको अनादिसिद्धान्तपदनाम कहते हैं। जैसे धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय इत्यादि । अपौरुषेय होनेसे सिद्धान्त अनादि है। वह सिद्धान्त जिस नामरूप पदका आश्रय हो उसे अनादिसिद्धान्तपद कहते हैं। बहुतसे पदार्थोंके होने पर भी किसी एक पदार्थकी बहुलता आदि द्वारा प्राप्त हुई प्रधानतासे जो नाम बोले जाते हैं उन्हें प्राधान्यपदनाम कहते हैं। जैसे, आम्रवन निम्बवन १ से किं तं पडिवक्खपएणं ? पडिवक्खपदेणं नवेसु गामागारणगरखेडकब्बडमंडवदोणमुहपट्टणासमसंवाहसंनिवेसेसु संनिविसमाणेसु असिवा सिवा, अग्गी सीअलो, विसं महुरं, कल्लालघरेस अविलं साउअं, जे रत्तए से अलत्तए, जे लाउए से अलाउए, जे सुंभए से कुसंभए, आलवंते विवलीअभासए, से तै पडिवखपएणं । अनु. १, १२८. २ अणादियसिद्धतेणं, धम्मस्थिकाए अधम्मस्थिकाए आगासन्धिकाए जीवस्थिकाए पुग्गलत्थिकाए अद्धासमए से तं अणादियसिद्धतेणं । अनु. १, १२८. ३ पाहण्णयाए असोगवणे सत्तवणवणे चंपगवणे चूअवणे नागवणे पुन्नागवणे उच्छवणे दक्खवणे सालिवणे से तं पाहण्णयाए । अनु. १, १२८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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