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________________ १, १, १.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे सुत्तावयरणं [७३ पुवाणुपुब्बी पच्छाणुपुब्बी जत्थतत्थाणुपुब्बी चेदि तिविहा आणुपुवी । जं मूलादो परिवाडीए उच्चदे सा पुव्वाणुपुवी । तिस्से उदाहरणं-' उसहमजियं च वंदे इच्चेवमादि । जं उवरीदो हेट्ठा परिवाडीए उच्चदि सा पच्छाणुपुबी । तिस्से उदाहरणं एस करेमि' य पणमं जिणवर-वसहस्स वडमाणस्स । सेसाणं च जिणाणं सिव-सुह-कंखा विलोमेण ॥ ६५ ॥ इदि । जमणुलोम-विलोमेहि विणा जहा तहा उच्चदि सा जत्थतत्थाणुपुव्वी । तिस्से उदाहरणं गय-गवल-सजल-जलहर-परहुव-सिहि-गलय-भमर-संकासो । हरिउल-वंस-पईवो सिव-माउव-वच्छओ जयऊ ॥ ६६ ॥ इच्चेवमादि । पूर्वानुपूर्वी, पश्चादानुपूर्वी और यथातथानुपूर्वी इसतरह आनुपूर्वीके तीन भेद है । जो वस्तुका विवेचन मूलसे परिपाटीद्वारा किया जाता है उसे पूर्वानुपूर्वी कहते हैं । उसका उदाहरण इसप्रकार है, 'ऋषभनाथकी वन्दना करता हूं, अजितनाथकी वन्दना करता हूं' इत्यादि क्रमसे ऋषभनाथको आदि लेकर महावीरस्वामी पर्यन्त क्रमबार वन्दना करना सो वन्दनासंबन्धी पूर्वानुपूर्वी उपक्रम है। जो वस्तुका विवेचन ऊपरसे अर्थात् अन्तसे लेकर आदितक परिपाटीक्रमसे (प्रतिलोम-पद्धतिसे) किया जाता है उसे पश्चादानुपूर्वी उपक्रम कहते है । जैसे _मोक्ष-सुखकी अभिलाषासे यह मैं जिनवरोंमें श्रेष्ठ ऐसे वर्द्धमानस्वामीको नमस्कार करता हूं। और विलोमक्रमसे अर्थात् वर्द्धमानके बाद पार्श्वनाथको, पार्श्वनाथके बाद नेमिनाथको इत्यादि क्रमसे शेष जिनेन्द्रोंको भी नमस्कार करता हूं ॥६५॥ जो कथन अनुलोम और प्रतिलोम क्रमके विना जहां कहींसे भी किया जाता है उसे यथातथानुपूर्वी कहते हैं। जैसे हाथी, अरण्यभैंसा, जलपरिपूर्ण और सघन मेघ, कोयल, मयूरका कण्ठ और भ्रमरके १ ज जेण कमेण सुत्तकारहि ठइदमुप्पण्णं वा तस्स तेण कमेण गणणा पुवाणुपुवी णाम | जयध. अ. पृ.३. २ उसहमजियं च वंदे संभवमाभणंदणं च सुमइं च । पउमप्पहं सुपासं जिणं च चंदप्पहं वंदे ।। सुविहिं च पुप्फदंतं सीयलसेयं च वामपुज्जं च । विमलमणतं भयवं धम्म संतिं च वंदामि ॥ कुंथु च जिणवरिंद अरं च मल्लि च मुणिसुव्वयं च । णमि वंदामि अरिह्र मि तह पासवढमाणं च ॥ एवमए अमिथुहिया विहुयरयमला पहीणजरमरणा । चउबीसं वि जिणवरा तित्थयरा मे पसीयंतु ॥ द. भ. पृ. ४. ३ तस्स विलोमेण गणणा पच्छाणुपुवी । जयध. अ. पृ. ३. ४ प्रतिषु 'क्खेमि' इति पाठः । ५ एस करेमि पणामं जिणवरवसह णं च । सेसाणं च जिणाणं सगणगणधराणं च सव्वेसिं॥ मूलाचा. १०५. ६ जत्थ वा तत्थ वा अप्पणो इच्छिदमादि कादण गणणा जत्थतत्थाणुपुवी । जयध. अ. पृ. ३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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