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७२) छक्खंडागमे जीवहाणं
[१, १, १. तदो मूल-तंत-कत्ता वड्डमाण-भडारओ, अणुतंत-कत्ता गोदम-सामी, उवतंतकत्तारा भूदबलि-पुप्फयंतादयो वीय-राय-दोस-मोहा मुणिवरा । किंमर्थ कर्ता प्ररूप्यते ? शास्त्रस्य प्रामाण्यप्रदर्शनार्थम् 'वक्तृप्रामाण्याद् वचनप्रामाण्यम् ' इति न्यायात् ।
___ संपहि जीवट्ठाणस्स' अवयारो उच्चदे। तं जहा, सो वि चउनिहो, उवकमो णिक्खेवो णयो अणुगमो चेदि । तत्थ उवक्कम भणिस्सामो । उपक्रम इत्यर्थमात्मनः उप समीपं क्राम्यति करोतीत्युपक्रमः । सा वि उवक्कमो पंचविहो, आणुपुव्वी णामं पमाणं वत्तव्वदा अत्थाहियारो चेदि । उत्तं च
तिविहा य आणुपुवी दसहा णामं च छविहं माणं । वत्तव्यदा य तिविहा तिविहो अस्थाहियारो वि ॥ ६४ ॥ इदि ।
इसतरह मूलग्रन्थकर्ता वर्द्धमान भट्टारक हैं, अनुग्रन्थकर्ता गौतमस्वामी हैं और उपग्रन्थकर्ता राग, द्वेष और मोहसे रहित भूतबलि, पुष्पदन्त इत्यादि अनेक आचार्य हैं।
शंका-यहां पर कर्ताका प्ररूपण किसलिये किया गया है ?
सामधान-शास्त्रकी प्रमाणताके दिखानेके लिये यहां पर कर्ताका प्ररूपण किया गया है, क्योंकि, 'वक्ताको प्रमाणतासे ही वचनोंमें प्रमाणता आती है ' ऐसा न्याय है।
अब जीवस्थानके अवतारका प्रतिपादन करते हैं। अर्थात् पुष्पदन्त और भूतबलि आचायेने जीवस्थान, खुद्दाबन्ध, बन्धस्वामित्व, वेदनाखण्ड, वर्गणाखण्ड और महाबन्ध नामक जिस षट्खण्डागमकी रचना की। उनमेंसे, प्रकृतमें यहां जीवस्थान नामके प्रथम खण्डकी उत्पत्तिका क्रम कहते हैं। वह इसप्रकार है
वह अवतार चार प्रकारका है, उपक्रम, निक्षेप, नय और अनुगम। उन चारोंमें पहले उपक्रमका निरूपण करते हैं, जो अर्थको अपने समीप करता है उसे उपक्रम कहते हैं । उस उपक्रमके पांच भेद हैं, आनुपूर्वी, नाम, प्रमाण, वक्तव्यता और अधिकार । कहा भी है
__ आनुपूर्वी तीन प्रकारकी है, नामके दश भेद हैं, प्रमाणके छह भेद हैं, वक्तव्यताके तीन भेद हैं और अर्थाधिकारके भी तीन भेद समझना चाहिये ॥१४॥
१ इयमूलतंतकत्ता सिरिवीरो इंदभूदि विप्पवरे । उवतंते कत्तारो अणुतंते सेस आइरिया ॥ णिण्णहराय. दोसा महेसिणो दिव्वसुत्तकत्तारो। किं कारणं पमणिदा कहि, सुत्तस्स पामण्णं ॥ ति. प. १,८०, ८१.
२ पुष्पदन्तभूतबलिभ्यां प्रणीतस्यागमस्य नाम 'षटूखण्डागम: तस्येमे षट् खण्डाः-१ जीवस्थानं २ खुद्दाबन्धः ३ बन्धस्वामित्वविचयः ४ वेदनाखण्डः ५ वर्गणाखण्डः ६ महाबन्धश्चेति । एषां षण्णां खण्डानां मध्ये प्रथमतस्तावजीवस्थाननामकप्रथमखण्डस्यावतारो निरूप्यते।
३ प्रकृतस्यार्थतत्वस्य श्रोतृबुद्धौ समर्पणम् । उपक्रमोऽसौ विज्ञेयस्तथोपोद्धात इत्यपि ॥ आ. पु. २. १०३. सत्थस्सोवक्कमणं उवकमो तेण तम्मि व तओ वा । सत्थसमीवीकरणं आणयणं नासदेसाम्मि ।। वि. भा. ९१४.
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