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________________ ५८ ] छक्खंडागमे जीवाणं अष्टसहस्रमद्दीपतिनायकमाहुर्बुधाः महामण्डलिकम् । षोडशराजसह त्रैर्विनम्यमानस्त्रिखण्डधरणीशः ' ॥ ४२ ॥ षट्खण्डभरतनाथं द्वात्रिंशद्धरणिपतिसहस्राणाम् । दिव्यमनुष्यं विदुरिह भोगागारं सुचक्रधरम् ॥ ४३ ॥ सकलभुवनैकनाथस्तीर्थकरो वर्ण्यते मुनिवरिष्ठैः । विधुधवलचामराणां तस्य स्याद्वै चतुःषष्टिः ॥ ४४ ॥ तित्थयर - गणहरत्तं तहेव देविंद चक्कवट्टित्तं । अण्णरिहमेवमाई अन्मुदय फलं वियाणाहि ॥ ४५ ॥ तत्र नैःश्रेयसं नाम सिद्धानामर्हतां चातीन्द्रियसुखम् । उक्तं चअदिसयमाद- समुत्थं विसयादीदं अणोत्रममणतं । अव्युच्छिष्णं च सुहं सुवजोगो य सिद्धाणं ॥ ४६ ॥ बुधजन आठ हजार राजाओंके स्वामीको महामण्डलीक कहते हैं । और जिसे सोलह हजार राजा नमस्कार करते हैं उसे तीन खण्ड पृथिवीका अधिपति अर्थात् नारायण कहते हैं ॥ ४२ ॥ इस लोक में बत्तीस हजार राजाओंसे सेवित, नव निधि आदिसे प्राप्त होनेवाले भोगोंके भण्डार, उत्तम चक्र-रत्नको धारण करनेवाले और भरत क्षेत्र के छह खण्डके अधिपतिको दिव्य अर्थात् अनेक गुणों से युक्त मनुष्य अर्थात् चक्रवर्ती समझना चाहिये ॥ ४३ ॥ जिनके ऊपर चन्द्रमाके समान धवल चौसठ चंवर दुरते हैं ऐसे सकल भुवन के अद्वितीय स्वामीको श्रेष्ठ मुनि तीर्थकर कहते हैं ॥ ४४ ॥ इस लोक में तीर्थंकरपना, गणधरपना, देवेन्द्रपना, चक्रवर्तिपना और इसीप्रकार के अन्य अर्ह अर्थात् पूज्य पदोंको अभ्युदयका फल समझना चाहिये ॥ ४५ ॥ अरिहंत और सिद्धोंके अतीन्द्रिय सुखको नैश्रेयस सुख कहते हैं । कहा भी हैअतिशयरूप, आत्मासे उत्पन्न हुआ, विषयोंसे रहित, अनुपम, अनन्त और विच्छेद [ १, १, १. १ पंचसयरायसामी अहिराजो होदि कित्तिभरिददिसो । रायाण जो सहस्सं पालइ सो होदि महराजो || दुसहस्सम उडबद्ध भुववसहो तच अद्धमंडलिओ । चउराजसहस्साणं अहिणाहो होइ मंडलियं ॥ महमंडलिओ णामो अट्टसहस्साण अहिवई ताणं । रायाणं अद्धचक्की सामी सोलससहरसमेत्ताणं ॥ ति. प. १,४५-४७. २ छक्खंडभरहणाहो बत्तीससहस्सम उडबद्धपहुदीओ । होदि हु सयलचक्की तित्रो सलवणवई || ति. प. १,४५. बलवामुदेवादीनां पराक्रमवर्णनाय किश्चिदुच्यते, सोलसराय सहस्सा सव्ववलेणं तु संकलनिबद्ध । अच्छंति वासुदेवं अगडतडम्मी ठियं संतं ॥ घेत्तण संकलं सो वामगहत्थेण अंकमाणाण । भुजिज्ज विलिंपिज्ज व महुमणं ते न चाएंति || दो सोला वचसा सव्ववलेणं तु संकलनिबद्धं । अच्छंति चक्रवहिं अगडतडम्मी ठियं संतं ॥ जं सवस्स उ बलं तं दुगुणं होइ चक्त्रस्सि । ततो बला बलवगा अपरिमियवला जिणवरिंदा ॥ आ. नि. ७१-७५. ३ प्रवच· १, १३. — मुद्भुवओगप्पसिद्धाणं ' इति पाठभेदः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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