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संत-परूवणाणुयोगद्दारे मंगलायरणं भाविय-सिद्धताणं दिणयर-कर-णिम्मलं हवइ णाणं । सिसिर-यर-कर-सरिच्छ हवइ चरित्तं स-वस-चित्तं ॥ ४ ॥ मेरु लय णिपकंपं णट्ट-मलं ति-मूढ-उम्मुकं । सम्मईसणमणुवममुप्पजइ पवयणमासा ॥ ४८ ॥ तत्तो चेव सुहाई सयलाई देव मणुय-खयराणं । उम्मूलियह-कम्मं फुड सिद्ध-सुहं पि पत्रयणादो ॥ ४९ ॥ जिय-मोहिंधण-जलणो अण्णाण-तमंधयार-दिणयरओ । कम्म-मल-कलुस-पुसओ जिण वयणमिवोवेही सुहयो ॥ ५० ॥ अण्णाण-तिमिर-हरणं सुभविय-हिययारविंद-जोहणयं । उज्जोइय-सयल-वहं सिद्धत-दिवायरं भजह ॥ ५१ ।।
रहित सुख तथा शुद्धोपयोग सिद्धोंके होता है ॥ ४६॥
जिन्होंने सिद्धान्तका उत्तम प्रकारसे अभ्यास किया है ऐसे पुरुषों का ज्ञान सूर्यकी किरणों के समान निर्मल होता है और जिसमें अपने चित्तको स्वाधीन कर लिया है ऐसा चन्द्रमाकी किरणें के समान चारित्र होता है ॥ ४७॥
__प्रवचन अर्थात् परमागमके अभ्याससे मेरुके समान निष्कम्प, आठ मल-रहित, तीन मूढ़ताओंसे रहित और अनुपम सम्यग्दर्शन भी होता है ॥ ४८ ॥
___ उस प्रवचनके अभ्याससे ही देव, मनुष्य और विद्याधरोंके सर्व सुख प्राप्त होते हैं, तथा आठ कमौके उन्मूलित हो जानेके बाद प्राप्त होनेवाला विशद सिद्ध सुख भी प्रवचनके अभ्याससे ही प्राप्त होता है ॥ ४२ ॥
वह जिनागम जीवके मोहरूपी धनके भस्म करने के लिये अग्निके समान है, अज्ञानरूपी गाद अन्धकारको नष्ट करनेके लिये सूर्यके समान है, कर्ममल अर्थात् द्रव्यकर्म, और कर्मकलुष अर्थात् भावकर्मको मार्जन करनेवाला समुद्र के समान है और परम सुभग है ॥५०॥
_अज्ञानरूपी अन्धकारको हरण करनेवाले, भव्यजीवोंके हृदयरूपी कमलको विकसित करनेवाले और संपूर्ण जीवोंके लिये पथ अर्थात् मोक्षमार्गको प्रकाशित करनेवाले ऐसे सिद्धान्तरूपी दिवाकरको भजो ॥५१॥
१ सीखें तित्थयराण कप्पातीदाण तह य इंदियादीदं । अदिसयमादसमुत्थं णिस्सेयसमणुवमं पवरं ।। सुदणाणभावणाए णाणे मतंड-किरण-उज्जाओ। आवं चंदुज्जलं चरितं चित्तं हवेदि भवाणं ।। कणयधराधरधीर मूढत्तयविरहिद हयग्गमले। जायदि पर्यणपटणे सम्मइंसणमणुवम णं ।। ति.प. १, ४९.५१.
सुरखेयरमणुवार्ण लब्भति सुहाइ आरिसंभासा। तत्तो णिवाणसुहं णिपणासिदधातुणद्धमलं । ति.प. १,५२. प्रतिषु जिणवयणमिवीवहिं ' इति पाठः
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