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________________ १, १, १.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे मंगलायरणं विप्रमुक्तः आचार्यः । पवयण-जलहि-जलोयर-हायामल-बुद्धि-सुद्ध-छावासो' । मेरु व्व णिप्पकंपो सूरो पंचाणणो वज्जो ॥ २९ ॥ देस-कुल जाइ-सुद्धो सोमंगो संग-भंग-उम्मुक्को । गयण व्व णिरुवलेवो आइरियो एरिसो होई ॥ ३० ॥ संगह-णिग्गह कुसलो सुत्तत्थ-विसारओ पहिय-कित्ती । सारण वारण-साहण-किरियुजुत्तो हु आइरियो ॥ ३१ ॥ एवंविधेभ्य आचार्येभ्यो नम इति यावत् । हैं उन्हें आचार्य कहते हैं। जो चौदह विद्यास्थानोंके पारंगत हों, ग्यारह अंगके धारी हों, अथवा आचारांगमात्रके धारी हों, अथवा तत्कालीन स्वसमय और परसमयमें पारंगत हों, मेरुके समान निश्चल हों, पृथिवीके समान सहनशील हों, जिन्होने समुद्रके समान मल अर्थात् दोषोंको बाहिर फेंक दिया हो, और जो सात प्रकारके भयसे रहित हों, उन्हें आचार्य कहते हैं। प्रवचनरूपी समुद्रके जलके मध्यमें स्नान करनेसे अर्थात् परमागमके परिपूर्ण अभ्यास और अनुभवसे जिनकी बुद्धि निर्मल हो गई है, जो निर्दोष रीतिसे छह आवश्यकोंका पालन करते हैं, जो मेरु पर्वतके समान निष्कम्प हैं, जो शूरवीर हैं, जो सिंहके समान निर्भीक हैं, जो वर्य अर्थात् श्रेष्ठ हैं, देश, कुल और जातिसे शुद्ध हैं, सौम्यमूर्ति हैं, अन्तरंग और बहिरंग परिग्रहसे रहित हैं, आकाशके समान निर्लेप हैं, ऐसे आचार्य परमेष्ठी होते हैं। जो संघके संग्रह अर्थात् दीक्षा और निग्रह अर्थात् शिक्षा या प्रायश्चित्त देनेमें कुशल हैं, जो सूत्र अर्थात् परमागमके अर्थमें विशारद हैं, जिनकी कीर्ति सब जगह फैल रही है, जो सारण अर्थात् आचरण, वारण अर्थात् निषेध और साधन अर्थात् बतौकी रक्षा करनेवाली क्रियाओंमें निरन्तर उद्युक्त हैं, उन्हें आचार्य परमेष्ठी समझना चाहिये ॥२९, ३०, ३१॥ . ऐसे आचार्योंको नमस्कार हो । १ तत्र भीतिरिहामुत्र लोके वै वेदनामयम् । चतुर्थी भीतिरत्राणं स्यादगुप्तिस्तु पंचमी ।। भीतिः स्याद्वा तथा मृत्युः भीतिराकस्मिकं ततः । क्रमादुद्देशिताश्चेति सप्तैता भीतयः स्मृताः ॥ पञ्चाध्या. २, ५०४, ५०५. २ सुद्धछावासो' ण वसो अवसो, अवसस्स कम्ममावासगं इति व्युत्पत्तावपि सामयिकादिश्वेवायं शब्दो वर्तते । च्याधिदौर्बल्यादिना व्याकुलो भण्यते अवशः परवश इति यावत् । तेनापि कर्त्तव्यं कर्मेति । अथवा, 'आवासो' इत्ययमर्थः, आवासयन्ति रत्नत्रयमात्मनीति कृत्वा सामायिक चतुर्विंशतिस्तवो वंदना प्रतिक्रमणं प्रत्याख्यानं व्युत्सर्ग इत्यमी षडावश्यकानि ॥ मूलारा. गा. ११६ टाका. ३ संगहणुग्गहकुसलो सुत्तत्थविसारओ पहियकित्ती । किरियाचरणसुजुत्तो गाहुय आदेश वयणो य ॥ मूलाचा. १५८. ४ आ मर्यादया तद्विषयविनयरूपया चर्यन्ते सेव्यन्ते जिनशासनार्थोपदेशकतया तदाकाहिमिः इत्याचार्याः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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