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४८ छक्खंडागमे जीवट्ठाणं .
[१, १, १. तेभ्यः सिद्धेभ्यो नमे इति यावत् ।
णिहय विविहट्ठ-कम्मा तिहुवण-सिर-सेहरा विहुव-दुक्खा । सुह-सायर-मज्झ-गया णिरंजणा णिच्च अह-गुणा ॥ २६ ॥ अणवज्जा कय-कज्जा सव्वावयवेहि दिट्ठ-सव्वट्ठा ।। वज्ज-सिलत्थब्भग्गय पडिमं वाभेज्ज-संठाणा ॥ २७ ॥ माणुस-संठाणा वि हु सव्वावयवेहि णो गुणेहि समा ।
सविदियाण विसयं जमेग-देसे विजाणंति ॥ २८॥ णमो आइरियाणं' पञ्चविधमाचारं चरन्ति चारयन्तीत्याचार्या: चतुर्दशविद्यास्थानपारगाः एकादशाङ्गधराः । आचाराङ्गधरो वा तात्कालिकस्वसमयपरसमयपारगों वा मेरुरिव निश्चलः क्षितिरिव सहिष्णुः सागर इव बहिःक्षिप्तमलः सप्तमय
ऐसे सिद्धोंको नमस्कार हो ।
जिन्होंने नाना भेदरूप आठ कोका नाश कर दिया है, जो तीन लोकके मस्तकके शेखरस्वरूप हैं, दुःखोंसे रहित हैं, सुखरूपी सागरमें निमग्न हैं, निरंजन हैं, नित्य हैं, आठ गुणोंसे युक्त हैं, अनवद्य अर्थात् निर्दोष हैं, कृतकृत्य हैं, जिन्होंने सर्वांगसे अथवा समस्त पर्यायोसहित संपूर्ण पदार्थोंको जान लिया है, जो वज्रशिला-निर्मित अभन्न प्रतिमाके समान अभेद्य आकारसे युक्त हैं, जो पुरुषाकार होने पर भी गुणोंसे पुरुषके समान नहीं है, क्योंकि, पुरुष संपूर्ण इन्द्रियोंके विषयोंको भिन्न भिन्न देशमें जानता है, परंतु जो प्रति प्रदेशमें सब विषयोंको जानते हैं, वे सिद्ध हैं।
'णमो आइरियाणं ' आचार्य परमेष्ठीको नमस्कार हो। जो दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और वीर्य इन पांच आचारोंका स्वयं आचरण करते हैं और दूसरे साधुओंसे आचरण कराते
१ नमस्करणीयता चैषामविप्रणाशिज्ञानदर्शनसुखवीर्यादिगुणयुक्ततया स्वविषयप्रमोदप्रकोत्पादनेन भव्यानामतीवोपकारहेतुत्वादिति । भग. १, १, १, टीका.
२ जम्हा पंचविहाचारं आचरंतो पभासदि । आयरियाणि देसंतो आयरिओ तेण उच्चदे ॥ मूलाचा. ५१.. आयारं पंचविहं चरदि चरावेदि जो णिरदिचारं | उवदिसदि य आयारं एसो आयारवं णाम ॥ मूलाचा. ४१९. ३ चोदसदसणवपुव्वी महामदी सायरो व्व गंमीरो । कप्पववहारधारी होदि हु आयारवं णाम ॥
मूलाचा. ४२५.. ४ पंच महब्वयतुंगा तकालियसपरसमयसुदधारा । णाणागुणगणभरिया आइरिया मम पसीदतु ||
ति. प. १, ३. ५ गंभीरो दुद्धरिसो सूरो धम्मप्पहावणासालो । खिदिससिसायरसरिसो कमेण तं सो दु संपत्तो ॥
मूलाचा. १५९.
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