SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 163
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४४] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, १, १. भस्मरजसा पूरिताननानामिव भूयो मोहावरुद्धात्मनां जिह्मभावोपलम्भात् । किमिति त्रितयस्यैव विनाश उपदिश्यत इति चेन्न, एतद्विनाशस्य शेषकर्मविनाशाविनाभावित्वात् । तेषां हननादरिहन्ता। रहस्याभावाद्वा अरिहन्तो। रहस्यमन्तरायः, तस्य शेषघातित्रितयविनाशाविनाभाविनो भ्रष्टबीजवन्निःशक्तीकृताघातिकर्मणो हननादरिहन्ता। अतिशयपूजार्हत्वाद्वाहन्तः । स्वर्गावतरणजन्माभिषेकपरिनिष्क्रमणकेवलज्ञानोत्पत्तिपरिनिवाणेषु देवकृतानां पूजानां देवासुरमानवप्राप्तपूजाभ्योऽधिकत्वादतिशयानामहत्वाद्योग्यत्वादर्हन्तः। भस्मसे व्याप्त होता है उनमें जिम्हभाव अर्थात् कार्यकी मन्दता देखी जाती है, उसीप्रकार मोहसे जिनका आत्मा व्याप्त हो रहा है उनके भी जिम्हभाव देखा जाता है, अर्थात् उनकी स्वानुभूतिमें कालुष्य, मन्दता या कुटिलता पाई जाती है। शंका-यहां पर केवल तीनों, अर्थात् मोहनीय, ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्मके ही विनाशका उपदेश क्यों दिया गया है ? समाधान-ऐसा नहीं समझना चाहिये, क्योंकि, शेष सभी कर्मीका विनाश इन तीन कमौके विनाशका अविनाभावी है। अर्थात् इन तीन कर्मोंके नाश हो जाने पर शेष कमौका नाश अवश्यंभावी है। इसप्रकार उनका नाश करनेसे अरिहंत संक्षा प्राप्त होती है। अथवा, 'रहस्य' के अभावसे भी अरिहंत संज्ञा प्राप्त होती है । रहस्य अन्तराय कर्मको कहते हैं। अन्तराय कर्मका नाश शेष तीन घातिया कौके नाशका अविनाभावी है, और अन्तराय कर्म के नाश होनेपर अघातिया कर्म भ्रष्ट बीज के समान निःशक्त हो जाते हैं। ऐसे अन्तराय कर्मके नाशसे अरिहंत संक्षा प्राप्त होती है। ___अथवा, सातिशय पूजाके योग्य होनेसे अर्हन् संज्ञा प्राप्त होती है, क्योंकि, गर्भ, जन्म, दीक्षा, केवल और निर्वाण इन पांचों कल्याणकों में देवोंद्वारा की गई पूजाएं देव, असुर और मनुष्योंको प्राप्त पूजाओंसे अधिक अर्थात् महान् हैं, इसलिये इन अतिशयोंके योग्य होनेसे अईन् संज्ञा समझना चाहिये। १ अरहंति णमोकारं अरिहा पूजा सुरुत्तमा लोए। रजहंता आरेहति य अरहता तेण उच्चंदे ॥ मूराचा. ५०५ अरिहंति वंदणणमंसणाई अरिहंति पूयसकारं । सिद्धिगमणं च अरिहा अरहंता तेण वुचंति ॥ देवासुरमणुएK अरिहा पूआ सुरुत्तमा जम्हा । अरिणो हंता रयं हंता अरिहंता तेण वुच्चंति ।। वि. भा. ३५८४, ३५८५. २ अविद्यमानं वा रहः एकान्तरूपो देशः, अन्तश्च मध्यं गिरिगुहादीनां सर्ववेदितया समस्तवस्तुस्तोमगतप्रच्छन्नत्वस्याभावेन येषां ते अरहोऽन्तरः [अरहता ] अथवा अविद्यमानो रथः स्यन्दनः सकलपरिग्रहोपलक्षणभूतः अन्तश्च विनाशो जरायुपलक्षणभूतो येषां ते अरथान्ता [अरहंता] । अथवा ' अरहताणं' ति क्वचिदप्यासक्तिमगच्छन्तः, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy