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________________ संत - परूवणाणुयोगद्दारे मंगलायरणं आविर्भूतानन्तज्ञानदर्शनसुखवीर्यविरतिक्षायिकसम्यक्त्वदानलाभभोगोपभोगाद्यन न्तगुणत्वादिहैवात्मसात्कृत सिद्धस्वरूपाः स्फटिकमणिमहीधरगर्भोद्भवादित्यविम्व वदेदीप्य मानाः स्वशरीरपरिमाणा अपि ज्ञानेन व्याप्तविश्वरूपाः स्वस्थिताशेषप्रमेयत्वतः प्राप्त - विश्वरूपाः निर्गताशेषामयत्वतो निरामयाः विगताशेषपापाञ्जनपुञ्जत्वेन निरञ्जनाः दोषकलातीतत्वतो निष्कलाः । तेभ्योऽर्हद्भयो नमः, इति यावत् । - मोह - तरुणो वित्थिण्णाणाण - सायरुत्तिण्णा । णिहय-णिय - विग्घ वग्गा बहु-बाह - विणिग्गया अयला ॥ २३ ॥ दलिय - मयण प्यावा तिकाल - विसरहि तीहि णयणेहि । दिट्ठ-सयलट्ठ-सारा सुदद्ध-तिउरा मुणि-व्वणो ॥ २४॥ ति- रयण - तिसूलधारिय मोहंधासुर - कबंध -बिंद - हरा | सिद्ध-सयलप्प-रूवा अरहंता दुण्णय-कयंता ॥ २५ ॥ १, १, १. ] अनन्त - ज्ञान, अनन्त-दर्शन, अनन्त-सुख, अनन्त-वीर्य, अनन्त-विरति, क्षायिक सम्यक्त्व, क्षायिक दान, क्षायिक लाभ, क्षायिक-भोग और क्षायिक उपभोग आदि प्रगट हुए अनन्त गुणस्वरूप होनेसे जिन्होंने यहीं पर सिद्धस्वरूप प्राप्त कर लिया है, स्फटिकमणिके पर्वतके मध्य से निकलते हुए सूर्य-बिम्बके समान जो दैदीप्यमान हो रहे हैं, अपने शरीर प्रमाण होने पर भी जिन्होंने अपने ज्ञानके द्वारा संपूर्ण विश्वको व्याप्त कर लिया है, अपने (ज्ञान) में ही संपूर्ण प्रमेय रहनेके कारण ( प्रतिभासित होने से ) जो विश्वरूपताको प्राप्त हो गये हैं, संपूर्ण आमय अर्थात् रोगों के दूर हो जानेके कारण जो निरामय हैं, संपूर्ण पापरूपी अंजनके समूहके नष्ट हो जानेसे जो निरंजन हैं, और दोषोंकी कलाएं अर्थात् संपूर्ण दोषों से रहित होने के कारण जो निष्कल हैं, ऐसे उन अरिहंतों को नमस्कार हो । जिन्होंने मोहरूपी वृक्षको जला दिया है, जो विस्तीर्ण अज्ञानरूपी समुद्रसे उत्तीर्ण हो गये हैं, जिन्होंने अपने विघ्नों के समूहको नष्ट कर दिया है, जो अनेक प्रकारकी बाधाओंसे रहित हैं, जो अचल हैं, जिन्होंने कामदेव के प्रतापको दलित कर दिया है, जिन्होंने तीनों कालों को विषय करनेरूप तीन नेत्रोंसे सकल पदार्थों के सारको देख लिया है, जिन्होंने त्रिपुर अर्थात् मोह, राग और द्वेषको अच्छी तरहसे भस्म कर दिया है, जो मुनिवती अर्थात् दिगम्बर अथवा मुनियोंके पति अर्थात् ईश्वर हैं, जिन्होंने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र इन तीन रत्नरूपी त्रिशूलको धारण करके मोहरूपी अन्धकासुरके कबन्धवृन्दका हरण कर लिया है, [ ४५ क्षीणरागत्वात् । अथवा अरहयद्भयः ' प्रकृष्टरागादिहेतुभूतमनोज्ञेतरविषयसंपर्केऽपि वीतरागत्वादिकं स्वं स्वभावमत्यजन्तः [ अरहंता ] | अरुहंताणमित्यपि पाठान्तरम् । तत्र ' अरोहद्भयः ' अनुपजायमानेभ्यः क्षीणकर्मबीजत्वात् । आह च, दग्धे बीजे यथात्यन्तं प्रादुर्भवति नांकुरः । कर्मबीजे तथा दग्धे न रोहाते भवांकुरः || नमस्करणीयता चैषां भीमभवगन भ्रमणमीत भूतानामनुपमानन्द रूपपरमपदपुरपथप्रदर्शकत्वेन परमोपकारित्वादिति । भग. १, १, १, टीका. I Jain Education International " For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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