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________________ [ ४३ १, १, १.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे मंगलायरणं प्रेतावासगताशेषदुःखप्रातिनिमित्तत्वादरिर्मोहः । तथा च शेषकर्मव्यापारो वैफल्यमुपेयादिति चेन्न, शेषकर्मणां मोहतन्त्रत्वात् । न हि मोहमन्तरण शेषकर्माणि स्वकार्यनिष्पत्तौ व्यापृतान्युपलभ्यन्ते येन तेषां स्वातन्त्र्यं जायेत । मोहे विनष्टऽपि कियन्तमपि कालं शेषकर्मणां सत्वोपलम्भान्न तेषां तत्तन्त्रत्वमिति चेन्न, विनष्टेरौ जन्ममरणप्रबन्धलक्षणसंसारोत्पादनसामर्थ्यमन्तरेण तत्सत्त्वस्यासत्त्वसमानत्वात् केवलज्ञानाद्यशेषात्मगुणाविर्भावप्रतिबन्धनप्रत्ययसमर्थत्वाच्च । तस्यारेहननादरिहन्ता'। .. रजोहननाद्वा अरिहन्ता। ज्ञानहगावरणानि रजांसीव बहिरङ्गान्तरङ्गाशेषत्रिकालगोचरानन्तार्थव्यञ्जनपरिणामात्मकवस्तुविषयबोधानुभवप्रतिबन्धकत्वाद्रजांसि । मोहोऽपि रजः है। नरक, तिर्यंच, कुमानुष और प्रेत इन पर्यायों में निवास करनेसे होनेवाले समस्त दुःखोंकी प्राप्तिका निमित्तकारण होनेसे मोहको 'अरि' अर्थात् शत्रु कहा है। शंका --केवल मोहको ही अरि मान लेनेपर शेष काका व्यापार निष्फल हो जाता है? समाधान-ऐसा नहीं है, क्योंकि, बाकीके समस्त कर्म मोहके ही आधीन है। मोहके विना शेष कर्म अपने अपने कार्यकी उत्पत्तिमें व्यापार करते हुए नहीं पाये जाते हैं। जिससे कि वे भी अपने कार्यमें स्वतन्त्र समझे जायं। इसलिये सचा अरि मोह ही है, और शेष कर्म उसके आधीन हैं। __ शंका-मोहके नष्ट हो जाने पर भी कितने ही काल तक शेष कर्मोंकी सत्ता रहती है, इसलिये उनको मोहके आधीन मानना उचित नहीं है ? समाधान-ऐसा नहीं समझना चाहिये, क्योंकि, मोहरूप अरिके नष्ट हो जाने पर जन्म, मरणकी परंपरारूप संसारके उत्पादनकी सामर्थ्य शेष कर्मों में नहीं रहनेसे उन कर्मोका सत्व असत्वके समान हो जाता है। तथा केवलज्ञानादि संपूर्ण आत्म-गुणों के आविर्भावके रोकने में समर्थ कारण होनेसे भी मोह प्रधान शत्रु है, और उस शत्रुके नाश करनेसे 'अरिहंत' यह संज्ञा प्राप्त होती है। - अथवा, रज अर्थात् आवरण-कर्मों के नाश करनेसे 'अरिहंत' यह संज्ञा प्राप्त होती है। शानावरण और दर्शनावरण कर्म धूलिकी तरह, बाह्य और अन्तरंग समस्त त्रिकालके विषयभूतअनन्त अर्थपर्याय और व्यंजनपर्यायस्वरूप वस्तुओंको विषय करनेवाले बोध और अनुभवके प्रतिबन्धक होनेसे रज कहलाते हैं। मोहको भी रज कहते हैं, क्योंकि, जिसप्रकार जिनका मुख १ प्रतिषु अत्रान्यत्र च ' अरिहतः' इति पाठः । रागद्दोसकसाए य इंदियाणि य पंच य । परीसहे उवसम्गे णासयतो णमोरिहा ॥ मूलाचा. ५०४. अट्ठविहं पि य कम्मं अरिभूयं होइ सव्वजीवाणं । तं कम्ममरि हंता अरिहंता शेण वुच्चंति ॥ इंदियविसयकसाए परीसहे वेयणा उवस्सग्गे । एए अरिणो हता अरिहंता तेण वुच्चंति ।। - वि. भा. ३५८३, ३५८२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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