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________________ [ २९ १, १, १.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे मंगलायरणं क्षेत्रादिः । तस्योदाहरणम्, ऊर्जयन्त-चम्पा-पावा-नगरादिः । अर्धाष्टारत्न्यादि-पंचविंशत्युत्तर-पंच-धनुः-शत-प्रमाण-शरीर-स्थित-कैवल्याद्यवष्टब्धाकाश-देशा वा, लोकमात्रात्मप्रदेशैर्लोक-पूरणापूरित-विश्व-लोक-प्रदेशा वा । तत्थ काल मंगलं णाम', जम्हि काले केवल-णाणादि-पजएहि परिणदो कालो पाव-मल-गालणत्तादो मंगलं । तस्योदाहरणम् , परिनिष्क्रमण-केवलज्ञानोत्पत्ति-परिनिर्वाणदिवसादयः। जिन-महिम-सम्बद्ध-कालोऽपि मङ्गलम् । यथा, नन्दीश्वरदिवसादिः । तत्थ भाव-मंगलं णाम, वर्तमानपर्यायोपलक्षितं द्रव्यं भावः । स द्विविधः आगमनोआगमभेदात् । आगमः सिद्धान्तः । आगमदो मंगल-पाहुड-जाणओ उवजुत्तो । णो-आगमदो भाव-मंगलं दुविहं, उपयुक्तस्तत्परिणत इति । आगममन्तरेण अर्थोपयुक्त उपयुक्तः । मङ्गलपर्यायपरिणतस्तत्परिणत इति । आगे उदाहरण देकर इसका खुलासा किया जाता है ऊर्जयन्त (गिरनार पर्वत) चम्पापुर और पावापुर आदि नगर क्षेत्रमंगल हैं। अथवा, साढ़े तीन हाथसे लेकर पांचसौ पच्चीस धनुष तकके शरीरमें स्थित और केवलज्ञानादिसे व्याप्त आकाश-प्रदेशोंको क्षेत्रमंगल कहते हैं। अथवा लोकप्रमाण आत्मप्रदेशोंसे लोकपूरणसमुद्धातदशामें व्याप्त किये गये समस्त लोकके प्रदेशको क्षेत्रमंगल कहते हैं। जिस कालमें जीव केवलज्ञानादि अवस्थाओंको प्राप्त होता है उसे पापरूपी मलका गलानेवाला होनेके कारण कालमंगल कहते हैं। उदाहरणार्थ, दीक्षाकल्याणक, केवलज्ञानकी उत्पत्ति और निर्माण प्राप्तिके दिवस आदि कालमंगल समझना चाहिये। जिन-महिमासम्बन्धी काल को भी कालमंगल कहते हैं। जैसे, आष्टाह्निक पर्व आदि। वर्तमान पर्यायसे युक्त द्रव्यको भाव कहते हैं। वह आगमभावमंगल और नोआगमभावमंगलके भेदसे दो प्रकारका है। आगम सिद्धान्तको कहते हैं, इसलिये जो मंगलविषयक शास्त्रका ज्ञाता होते हुए वर्तमानमें उसमें उपयुक्त है उसे आगमभावमंगल कहते हैं। नो-आगमभावमंगल, उपयुक्त और तत्परिणतके भेदसे दो प्रकारका है। जो आगमके विना ही मंगलके अर्थमें उपयुक्त है उसे उपयुक्तनो-आगमभावमंगल कहते हैं और मंगलरूप पर्याय अर्थात् गयणदेसो वा । सेटीघणमेत्तअप्पपदेसगदलोयपूरणं पुण्णं ॥ विण्णासं लोयाणं होदि पदेसा वि मंगलं खेत्तं ॥ ति. प. १, २१-२४. १ अर्धाष्ट ' इत्यत्र ' अर्थचतुर्थ' इति पाठेन भाव्यम् । २ जस्सि काले केवलणाणादि मंगलं पारणमदि॥ परिणिकमणं केवलणाणुभवणिबुदिपवेसादी । पावमल गालणादो पण्णत्तं कालमंगलं एदं ॥ एवं अणेयमेयं हवेदि तकालमंगलं परं । जिणमहिमासंबंधं गंदीसरदीत्रपहुदीओ || ति. प. १,२४-२६. . . . ..३ मंगलपन्जाएहिं उबलक्खियजीवदवमेत्तं च । भावं मंगलमेदं पठियउ सत्त्यादिमज्झयंतेसु ॥ ति.प.१,२७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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