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________________ २८] छक्खंडागमे जीवाणं [ १, १, १. लोकोत्तरमङ्गलमपि त्रिविधम्, सचित्तमचित्तं मिश्रमिति । सचित्तमहदादीनामनाद्यनिधनजीवद्रव्यम् । न केवलज्ञानादिमङ्गलपर्यायविशिष्टाईदादीनाम्, जीवद्रव्यस्येव ग्रहणं तस्य वर्तमानपर्यायोपलक्षितं द्रव्यं भाव इति भावनिक्षेपान्तर्भावात् । न केवलज्ञानादिपर्यायाणां ग्रहणं तेषामपि भावरूपत्वात् । अचित्तमङ्गलं कृत्रिमाकृत्रिमचैत्यालयादिः, न तत्स्थप्रतिमास्तु संस्थापनान्तर्भावात । अकृत्रिमाणां कथं स्थापनाव्यपदेशः ? इति चेन्न, तत्रापि बुद्धया प्रतिनिधौ स्थापितमुख्योपलम्भात् । यथा अग्निरिव माणवकोऽग्निः तथा स्थापनेव स्थापनेति तासां तद्वयपदेशोपपत्तेर्वा । तदुभयमपि मिश्रमङ्गलम् । तत्र क्षेत्रमङ्गलं गुण-परिणतासन-परिनिष्क्रमण-केवलज्ञानोत्पत्ति-परिनिर्वाण लोकोत्तर मंगल भी सचित्त, अचित्त और मिश्रके भेदसे तीन प्रकारका है । अरहंत आदिका अनादि और अनन्तस्वरूप जीवद्रव्य सचित लोकोत्तर नो-आगमतद्व्यतिरिक्तद्रव्यमंगल है । यहांपर केवलज्ञानादि मंगल-पर्याययुक्त अरहंत आदिकका ग्रहण नहीं करना चाहिये, किंतु उनके सामान्य जीवद्रव्यका ही ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि, वर्तमान-पर्यायसहित द्रव्यका भावनिक्षेपमें अन्तर्भाव होता है। इसलिये केवलज्ञानादियुक्त अरहंतके आत्माकी भावनिक्षेपमें परिगणना होगी। उसकी द्रव्यनिक्षेपमें गणना नहीं हो सकती है। उसीप्रकार, केवलज्ञानादि पर्यायोंका भी इस लोकोत्तर नो-आगमद्रव्यमंगलमें ग्रहण नहीं होता है, क्योंकि, वे सब पर्याएं भावस्वरूप होनेके कारण उनका भी भावनिक्षेपमें ही अन्तर्भाव होगा। कृत्रिम और अकृत्रिम चैत्यालयादि अचित्त लोकोत्तर नो-आगमतव्यतिरिक्तद्रव्यमंगल हैं। उन चैत्यालयोंमें स्थित प्रतिमाओंका इस निक्षेपमें ग्रहण नहीं करना चाहिये, क्योंकि, उनका स्थापना निक्षेपमें अन्तर्भाव होता है। शंका-अकृत्रिम प्रतिमाओंमें स्थापनाका व्यवहार कैसे संभव है ? समाधान-इसप्रकार शंका करना उचित नहीं है, क्योंकि, अकृत्रिम प्रतिमाओंमें भी बुद्धिद्वारा प्रतिनिधित्व मान लेने पर 'ये जिनेन्द्रदेव हैं' इसप्रकारके मुख्य व्यवहारकी उपलब्धि होती है। अथवा, अग्नि-तुल्य बालकको भी जिसप्रकार अग्नि कहा जाता है, उसीप्रकार कृत्रिम प्रतिमाओंमें की गई स्थापनाके समान यह भी स्थापना है, इसलिये अकृत्रिम जिन प्रतिमाओंमें स्थापनाका व्यवहार हो सकता है। उक्त दोनों प्रकारके सचित्त और अचित्त मंगलोंको मिश्र-मंगल कहते हैं। गुणपरिणत आसनक्षेत्र, अर्थात् जहां पर योगासन वीरासन इत्यादि अनेक आसनोसे तदनुकूल अनेक प्रकारके योगाभ्यास, जितेन्द्रियता आदि गुण प्राप्त किये गये हों ऐसा क्षेत्र, परिनिष्क्रमणक्षेत्र, केवलज्ञानोत्पत्तिक्षेत्र और निर्वाणक्षेत्र आदिको क्षेत्रमंगल कहते हैं। .............................. १. गुणपरिणदासणं परिणिकमणं केवलस्स णाणस्स। उप्पत्ती इय पहुदी बहुभेयं खेत्तमंगलयं ॥ एदस्स उदाहरणं पावाणगरजयंतचंपादी । आहुठ्ठहत्थपहुदी पणुवीसम्भाहियपणसयधाणे || देहअवविदकेवलणाणावद्ध। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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